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कर्मबन्ध और क्रिया
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wimmin
भारतीय दर्शन में बन्ध के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन हुआ है। बन्धन ही दुःख है। समग्र आध्यात्मिक चिन्तन बन्धन से मुक्त होने के लिये है। बन्धन की वास्तविकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। जैनदृष्टि से बन्धन विजातीय तत्त्व के सम्बन्ध से होता है। जड़ द्रव्यों में एक पुद्गल नामक द्रव्य है। पुद्गल के अनेक प्रकार हैं, उनमें कर्मवर्गणा या कर्मपरमाणु एक सूक्ष्म भौतिक द्रव्य है। इस सूक्ष्म भौतिक कर्मद्रव्य से आत्मा का सम्बन्धित होना बन्धन है। बन्धन आत्मा का अनात्मा से, जड़ का चेतन से, देह का देही से संयोग है। ___ आचार्य उमास्वाति८७ के शब्दों में कहा जाय तो कषायभाव के कारण जीव का कर्मपुद्गल से आक्रान्त हो जाना बन्ध है। आचार्य देवेन्द्रसूरि ने लिखा है कि आत्मा जिस शक्ति-विशेष से कर्मपरमाणुओं को आकर्षित कर उन्हें आठ प्रकार के कर्मों के रूप में जीवप्रदेशों से सम्बन्धित करता है तथा कर्मपरमाणु और आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, वह बन्धन है।८८ __ जैनदृष्टि से बन्ध का कारण आम्रव है। आस्रव का अर्थ है कर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना। आत्मा की विकारी मनोदशा भावानव कहलाती है और कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आने की प्रक्रिया को द्रव्यानव कहा गया है। भावानव कारण है और द्रव्यानव कार्य है। द्रव्यानव का कारण भावानव है
और द्रव्यानव से कर्मबन्धन होता है। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ ही आस्रव हैं।८९ मानसिक वृत्ति के साथ शारीरिक और वाचिक क्रियाएं भी चलती हैं। उन क्रियाओं के कारण कर्मानव भी होता रहता है। जिन व्यक्तियों का अन्तर्मानस कषाय से कलुषित नहीं है, जिन्होंने कषाय को उपशान्त या क्षीण कर दिया है, उनकी क्रिया के द्वारा जो आस्रव होता है, वह ईर्यापथिक आस्रव कहलाता है। चलते समय मार्ग की धूल के कण वस्त्र
गते हैं और दूसरे क्षण वे धूलकण विलग हो जाते हैं। वही स्थिति कषायराहत क्रियाओं से होती है। प्रथम क्षण में आस्रव होता है तो द्वितीय क्षण में वह निर्जीर्ण हो जाता है। भगवतीसूत्र के तृतीय शतक के तृतीय उद्देशक में भगवान् महावीर ने अपने छठे गणधर मण्डितपुत्र की जिज्ञासा
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