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३२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
२. श्रुतसम्पन्न हैं पर शीलसम्पन्न नहीं, वे पुरुष पाप से निवृत्त नहीं हैं पर धर्म को जानते हैं, इसलिये वे अंश से विराधक हैं।
३. कितने ही शीलसम्पन्न हैं और श्रुतसम्पन्न भी हैं, वे पाप से पूर्ण रूप से बचते हैं, इसलिये वे पूर्ण रूप से आराधक हैं।
४. जो न शीलसम्पन्न हैं और न श्रुतसम्पन्न हैं, वे पूर्ण रूप से विराधक
प्रस्तुत संवाद में भी भगवान् महावीर ने उस साधक के जीवन को श्रेष्ठ बतलाया है जिसके जीवन में ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगा रहा हो और साथ ही ज्ञान के अनुरूप जो उत्कृष्ट चारित्र की भी आराधना करता हो। भगवान् महावीर के युग में अनेक दार्शनिक ज्ञान को ही महत्त्व दे रहे थे। उनका यह अभिमत था कि ज्ञान से ही मुक्ति होती है। आचरण की कोई आवश्यकता नहीं। कुछ दार्शनिकों का यह वज्राघोष था कि मुक्ति के लिये ज्ञान की नहीं, चारित्रपालन की आवश्यकता है। मिश्री की मधुरता का परिज्ञान न होने पर भी उसकी मिठास का अनुभव मिश्री को मुँह में डालने पर होता ही है। यह नहीं होता कि मिश्री के विशेषज्ञ को मिश्री का मिठास अधिक अनुभव होता हो। इसलिये “आचारः प्रथमो धर्मः" है। पर भगवान् महावीर ने कहा कि अनन्त आकाश में उड़ान भरने के लिये पक्षी की दोनों पांखें सशक्त चाहिये, वैसे ही साधना की परिपूर्णता के लिये श्रुत और शील दोनों की आवश्यकता है। भगवान महावीर ने आराधना तीन प्रकार की बताई हैं-ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना। जहाँ तीनों में उत्कृष्टता आ जाती है, वह साधक उसी भव में मुक्ति को प्राप्त होता है। एक में भी अपूर्णता होती है तो वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। दर्शन की प्राप्ति चतुर्थ गुणस्थान में हो जाती है। ज्ञान की परिपूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है और चारित्र की परिपूर्णता चौदहवें गुणस्थान में। जब तीनों परिपूर्ण होते हैं तब आत्मा मुक्त बनता है।८६
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