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२४२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
समवसरण-अर्हन्त भगवान के धर्मोपदेश देने की सभा, जहां मनुष्य, तिर्यञ्च व देव-असुरादि उनकी अमृत वाणी से कर्ण तृप्त करते हैं। यह समवसरण देवकृत होता है। ___समिति-सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति समिति है। समिति पांच प्रकार की हैईर्यासमिति-विवेक से चलना, भाषा समिति-विवेक पूर्वक बोलना, एषणा समिति-बयालीस दोष टालकर आहार-पानी ग्रहण करना, आदान निक्षेपण समिति-ज्ञान के उपकरण, संयमोपकरण को यतनापूर्वक उठाना और रखना तथा प्रतिष्ठापन समिति-स्थावर व जंगम प्राणियों की विराधना न हो ऐसे निर्जन व जन्तु रहित स्थान में मल-मूत्रादि का विसर्जन करना, उत्सर्ग समिति
है।
सम्यग्दर्शन-वीतराग अर्हन्त को देव, निर्ग्रन्थ को गुरु और दया को उत्कृष्ट धर्म मानना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। तथा ज्ञेय और ज्ञाता इन दोनों की यथारूप प्रतीति निश्चय सम्यग्दर्शन है। ___ सम्यग्दृष्टि-सूत्र प्रणीत जीवादि पदार्थों को हेय व उपादेय बुद्धि से जानने और श्रद्धा रखने वाला सम्यग्दृष्टि है।
सुधर्मा-ये कोल्लाग सन्निवेश के निवासी अग्निवैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता धम्मिल थे और माता भद्दिला थी। पांच सौ छात्र इनके पास अध्ययन करते थे। पचास वर्ष की अवस्था में शिष्यों के साथ प्रव्रज्या ली। ४२ वर्ष छद्मस्थ रहे। महावीर निर्वाण के बारह वर्ष व्यतीत होने पर केवली हुए। आठ वर्ष केवली पर्याय में रहे।
श्रमण भगवान के सर्व गणधरों में सुधर्मा दीर्घजीवी थे, अतः अन्यान्य गणधरों ने अपने-अपने निर्वाण के समय अपने-अपने गण सुधर्मा को सौंप दिये थे।
भगवान के निर्वाण के २० वर्ष पश्चात् सौ वर्ष की परिपूर्ण आयु भोगकर मासिक अनशन पूर्वक राजगृह के गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त
किया।
सुमेरु–यह मध्यलोक का सर्वप्रधान पर्वत है। तीन लोक का मानदण्ड, विदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में स्थित स्वर्णवर्ण व कूटाकार है। यह जम्बूद्वीप में एक, धातकी खण्ड व पुष्करार्घ द्वीप में दो-दो हैं। इस प्रकार कुल पांच सुमेरु हैं। इसके व्रजमूल, सवैडूर्य चूलिक, मणिचित्त, सुरालय, मेरु, सुमेरु,
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