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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन २४१ संज्वलन - संयम के साथ अवस्थान होने से एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं, या जिनके सद्भाव में संयम चमकता है वे संज्वलन क्रोध, मान माया, लोभ हैं ।२५ संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र का घातक है। संमूर्च्छन- सं अर्थात् समस्त रूप में जन्म ग्रहण करता हुआ जो जीव स्व उपकारी शरीराकार परिणमने योग्य पुद्गल स्कन्धों को स्वयमेव ग्रहण करता है, वह संमूर्च्छन जन्म है। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, कुछ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च व मनुष्य संमूर्छिम होते हैं। , संयत - बहिरंग और अन्तरंग आस्रवों से विरत होने वाला महाव्रती श्रमण संयत है। शुभोपयोग युक्त होने पर वह प्रमत्त और आत्मसंवित्ति में रत होने पर अप्रमत्तसंयत कहलाता है। संयतासंयत-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों से संयुक्त होना संयमासंयम है। उसके धारक और असंख्यात गुणश्रेणी रूप निर्जरा के द्वारा कर्मों को झाड़ने वाले सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत, संयतासंयत या श्रावक कहलाते हैं। संयम -- सम्यक् प्रकार से यम अर्थात् नियंत्रण संयम है। व्रत समिति - गुप्ति आदि में अच्छी तरह से स्वयं को, स्वयं के लिये, स्वयं में तल्लीन करना संयम है। संवर - मिथ्यादर्शन आदि से होने वाले कर्मों का संवरण-रुक जाना द्रव्य संवर है। और संसार की निमित्तभूत क्रिया-निवृत्ति रूप आत्म-परिणाम भाव वर है। संसार-मिथ्यात्व-कषाय आदि से युक्त जीव का एक शरीर से दूसरे शरीर में संसरण - परिभ्रमण होना संसार है। और अनादिकाल से अष्ट कर्मों से मोहित हुआ, स्व-स्वरूप से अनभिज्ञ, गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान में स्थित आत्मा संसारी है। सत्य - यथातथ्य कथन जो हित-मित हो वह सत्य है । सत्य अणुव्रत रूप से भी ग्रहण किया जाता है और महाव्रत रूप से भी । समय - जघन्य गति से एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने काल में जाता है, वह काल का सूक्ष्मतम अविभागी काल समय कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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