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________________ २४० भगवती सूत्र : एक परिशीलन व्यक्तभति-ये कोल्लाग सनिवेश के निवासी थे, और भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम धनमित्र और माता का नाम वारुणी था। पचास वर्ष की अवस्था में पांच सौ छात्रों के साथ श्रमण धर्म स्वीकार किया। बारह वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहे और अठारह वर्ष केवली पर्याय पालकर अस्सी वर्ष की अवस्था में मासिक अनशन के साथ राजगृह के गुणशीत चैत्य में निर्वाण को प्राप्त हुए। व्याप्ति-अविनाभाव .सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं। जैसे-जहां-जहां धूम होता है, वहां-वहां अग्नि अवश्य होती है। यहां धूम के साथ अग्नि का अविनाभाव सम्बन्ध है। व्रत-यावज्जीवन हिंसादि पापों की एकदेश या सर्वदेश निवृत्ति को व्रत कहते हैं। एकदेश त्याग को अणुव्रत और सम्पूर्ण त्याग को महाव्रत कहते हैं। शरीर-अनन्तानन्त पुद्गलों का समवाय जो उत्पत्ति समय से लेकर प्रतिक्षण शीर्णता-जर्जरता को प्राप्त होता है-वह शरीर है। शरीर पांच हैं। उनमें औदारिक शरीर मनुष्य व तिर्यञ्चों के होता है, जो स्थूल व दृष्टिगोचर है। वैक्रिय शरीर देवता व नारक के होता है। तैजस व कार्मण शरीर सर्व संसारी जीवों के होता है। आहारक शरीर चौदह पूर्वपाठी मुनिराज के ही संभव है। शरीर यद्यपि नामकर्म के उदय का फल होने से अपकारी है परन्तु मुमुक्षु जन इसके द्वारा रत्नत्रय की आराधना-साधना कर इसे उपकारी बना लेते हैं। श्रमण-जो श्रम, शम और सम से युक्त हों, वे साधु श्रमण कहलाते हैं। श्रावक-जो श्रद्धापूर्वक वीतराग धर्म का श्रवण करता है वह पंचम गुणस्थानवर्ती, विवेकवान्, विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थ श्रावक कहलाता है। श्रुतज्ञान-"श्रूयते इति श्रुतम्" जिसके द्वारा सुना जाता है जो सुनता है या सुनना मात्र श्रुत है। अथवा श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर जो परोक्ष रूप से सब वस्तुओं का अनेकान्त रूप दर्शाता है वह संशय, विपर्यय आदि से रहित ज्ञान श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। ____ संक्रमण-किसी भी एक कर्म की उत्तर प्रकृति का सजातीय दूसरी उत्तर प्रकृति के रूप में बदलने को संक्रमण कहते हैं। संज्ञी-विशिष्ट मन के सद्भाव के कारण जिन जीवों में शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकार से विचार, तर्क आदि करने की शक्ति है वे संज्ञी कहलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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