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भगवती सूत्र : एक परिशीलन २३९ राग-द्वेष-इष्ट पदार्थों के प्रति रतिभाव राग है और अनिष्ट पदार्थों के प्रति अरुचिभाव द्वेष है। शुभ व अशुभ के भेद से राग दो प्रकार का है। पर द्वेष अशुभ ही होता है। सम्यग्दृष्टि की निचली भूमिकाओं में ये व्यक्त होते हैं और ऊपर की भूमिकाओं में क्रमशः अव्यक्त।
लेश्या-कषाय से अनुरंजित जीव की मन, वचन, काय की प्रवृत्ति भाव लेश्या है। आगम में इनका कृष्णादि छह भेदों द्वारा निर्देश किया है। शरीर के रंग को द्रव्यलेश्या कहते हैं। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये लेश्या हैं। कषाय का उदय छह प्रकार का होता है-तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम। इन छह प्रकार के कषाय के उदय से उत्पन्न हुई परिपाटी क्रम से लेश्या भी छह प्रकार की हो जाती है। कषायानुविद्ध योग प्रवृत्ति को ही लेश्या कहते हैं। और इसमें योग की प्रधानता होती है। कहीं-कहीं पर योगप्रवृत्ति को भी लेश्या कहा है, तेरहवें गुणस्थानवी जीव की अपेक्षा से, जहां पर कषाय नहीं पर लेश्या है। ___ लोक-आकाश के जितने भाग में धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्य दिखाई देते हैं वह लोक है अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है। यह लोक तालवृक्ष के आकार वाला है। उसके चारों तरफ शेष अनन्त आकाश अलोक है।
विहायोगति नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की अशुभ या शुभ चाल हो, वह कर्म अशुभ या शुभ विहायोगति नामकर्म है।
वीतराग-जिनका राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हो गया है।
वायुभूति-ये इन्द्रभूति के लघुभ्राता थे। ४२ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की, दस वर्ष छद्यस्थावस्था में रहे। १८ वर्ष केवली पर्याय में रहे। ७० वर्ष की अवस्था में राजगृह के गुणशील चैत्य में मासिक अनशन के साथ-साथ निर्वाण प्राप्त किया। ये भगवान महावीर के तृतीय गणधर थे। __विरुद्ध हेत्वाभास-साध्य से विपरीत पदार्थ के साथ जिस हेतु की व्याप्ति निश्चित हो, वह विरुद्ध हेत्वाभास है। यथा-पुरुष सर्वथा नित्य या सर्वथा
अनित्य ही है, क्योंकि वह प्रत्यभिज्ञान वाला है। ___ वेदनीय कर्म-जीव के सुख और दुःख का उत्पादक वेदनीय कर्म है। सुख का कारणभूत सातावेदनीय और दुःख का कारणभूत असातावेदनीय है।
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