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२३८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
मेतार्य-ये वत्सदेशान्तर्गत तुंगिका सन्निवेश के निवासी कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम दन्त व माता का नाम वरुण देवी था। उन्होंने तीन सौ छात्रों के साथ ३६ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। १० वर्ष छद्मस्थ रहे और १६ वर्ष केवली अवस्था में। भगवान महावीर निर्वाण के चार वर्ष पूर्व बासठ (६२) वर्ष की अवस्था में राजगह के गणशील चैत्य में उनका निर्वाण हुआ।
मोक्ष-बन्धहेतुओं (मिथ्यात्व, कषाय आदि) के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है। जैन दर्शन आत्म प्रदेशों की सर्वव्यापकता स्वीकार नहीं करता, न ही मोक्ष में आत्मा को निर्गुण व शून्य स्वीकार करता है। उसके स्वभावभूत अनन्तज्ञान आदि आठ गुण हैं। कितने ही दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्यों की मान्यता है, कि जितने जीव मुक्त होते हैं उतने ही जीव नित्यनिगोद में से निकलकर इतर निगोद या व्यवहार राशि में आ जाते हैं। इससे लोक जीवों से कभी रिक्त नहीं होता। __मोहनीय कर्म-जीव को मद्य-पान के समान हेय-उपादेय के ज्ञान से रहित बनाने वाला संसार परिभ्रमण का मूल कारण कर्म मोहनीय कहलाता है। इसके मूल दो भेद हैं-दर्शनमोह और चारित्रमोह। इनके अवान्तर भेद २८ हो जाते हैं। क्रोध, मान माया, लोभ आदि चारित्रमोह के ही उत्तर भेद
___मौर्यपुत्र-ये काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता मौर्य और माता विजयादेवी थीं। मौर्यसन्निवेश के निवासी थे। ३५० छात्रों के साथ ५३ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली, ७९ वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान और भगवान महावीर के अंतिम वर्ष में ८३ वर्ष की अवस्था में मासिक अनशन पूर्वक राजगृह के गुणशील चैत्य में परिनिवृत्त हुए। ये भगवान के सप्तम गणधर थे।
योग-मन-वचन-काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति योग है। यह एक होती हुई भी मन-वचन-काया रूप निमित्त भेद की अपेक्षा तीन प्रकार की और १५ प्रकार की है। अथवा मन-वचन-काया वर्गणा के निमित्त से आत्म-प्रदेश का परिस्पन्द-हलन-चलन योग है।
पातंजलयोग दर्शन आदि ग्रन्थों में चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है, तथा हरिभद्र सूरि और आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रस्तुत परिभाषा को अपने ग्रन्थों में मान्यता दी है। मगर यह योग उपर्युक्त योग से भिन्न है।
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