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भगवती सूत्र : एक परिशीलन २३७ मनः पर्यवज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जो ज्ञान संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानता है वह मनः पर्यवज्ञान है ।
मन-मन एक आभ्यन्तर इन्द्रिय है। मनोवर्गणा के पुद्गल द्रव्य मन है । चक्षु आदि इन्द्रियों के समान अपने विषय में निमित्त होने पर भी अप्रत्यक्ष व अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इसे इन्द्रिय न कहकर अनिन्द्रिय ईषत् इन्द्रिय कहा जाता है। संकल्प-विकल्पात्मक परिणाम तथा विचार चिन्तवन आदि रूप ज्ञान की अवस्थाविशेष भावमन है।
मनुष्य - मन के द्वारा हेय उपादेय का विवेक, तत्त्व - अतत्त्व आदि का विचार करने में निपुण और उत्कृष्ट मन के धारक जीव मनुष्य हैं। मोक्ष का द्वार होने से मनुष्य गति सर्वोत्तम मानी गई है। मध्यलोक के बीच में ४५,००,००० योजन प्रमाण अढाई द्वीप तक, मानुषोत्तर पर्वत से पहले मनुष्य क्षेत्र है और ऊपर सुमेरु पर्वत के शिखर पर्यन्त इस क्षेत्र की सीमा है।
महावीर जैन परम्परा के चौबीसवें तीर्थंकर । विशेष परिचय के लिए लेखक का 'भ. महावीर : एक अनुशीलन' ग्रन्थ देखें ।
मिथ्यादर्शन - जीवादि पदार्थों पर यथार्थ श्रद्धान न करना, मिथ्यादर्शन है।
मिथ्यादृष्टि - आत्म ज्ञान से शून्य बाह्य जगत् में ही अपना समस्त पुरुषार्थ उड़ेलकर जीवन विनष्ट करने वाले सर्व लौकिक जन मिथ्यादृष्टि, बहिरात्मदृष्टि या परसमय कहलाते हैं।
मिश्रमोहनीय - जिस कर्म के उदय से जीव की मिश्ररुचि हो अर्थात् न पूर्णरूपेण तत्त्वश्रद्धा हो और न ही पूर्णरूप से अतत्त्वश्रद्धा हो, उसे मिश्रमोहनीय कहते हैं।
मुहूर्त - ३७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त कहा जाता है अथवा ५११० निमेष का एक मुहूर्त होता है ।
मूर्त- केवल आकारवान् को ही नहीं बल्कि इन्द्रियग्राही पदार्थ को मूर्त कहते हैं । षट्द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्त है । यद्यपि सूक्ष्म स्कन्ध रूप वर्गणाएं और परमाणु इन्द्रियग्राह्य नहीं है, तथापि उनका कार्य जो स्थूल स्कन्ध है वह इन्द्रियग्राह्य है।
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