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भगवती सूत्र : एक परिशीलन ११ आधार बने; पर जैकोबी की इस कल्पना का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। बौधायन में उल्लिखित व्रतों के आधार पर डॉ. जैकोबी ने जो कल्पना की है, वह सत्य तथ्य से परे है। क्योंकि व्रत का सम्बन्ध संन्यास आश्रम से है और वेदों में संन्यास आश्रम की कोई चर्चा नहीं है। वैदिक युग में ब्रह्मचर्य
और गृहस्थ ये दो ही व्यवस्थाएँ थीं। संन्यास की चर्चा उपनिषत्काल में प्रारम्भ हुई। बृहदारण्यक में संन्यास का उल्लेख अवश्य हुआ है।३५ जाबालोपनिषद् में चार आश्रमों की व्यवस्था प्राप्त है ३६ उपनिषद् साहित्य के पूर्व वैदिक परम्परा में पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा की प्रधानता थी। तैत्तिरीयसंहिता में वर्णन है कि ब्राह्मण तीन ऋणों के साथ जन्म ग्रहण करता है। ऋषियों के ऋण से मुक्त होने के लिए ब्रह्मचर्य है। देवों के ऋण से मुक्त होने के लिए यज्ञ है और पितरों के ऋण से उऋण होने के लिए पुत्रवान होना आवश्यक है३७।। ____ एक बार वेधस राजा ने नारद ऋषि से पूछा-पुत्र से क्या लाभ? नारद ने उत्तर प्रदान करते हुए कहा-यदि पिता अपने पुत्र का मुख देख ले तो पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है और अमर बन जाता है३८। इस प्रकार वैदिक परम्परा में पुत्र की प्रधानता रही है। उसे त्राता माना है, जबकि जैनपरम्परा में पुत्र को त्राता नहीं माना है३९ । ___ वैदिक परम्परा में गृहस्थ-आश्रम को सबसे प्रमुख आश्रम माना है-जिस प्रकार नदी और नद सागर में आकर स्थिर हो जाते हैं, वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थ-आश्रम में स्थिर होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि संन्यास और व्रत की परम्परा श्रमणधर्म की देन है। श्रमणधर्म से ही वैदिक परम्परा ने व्रत आदि को ग्रहण किया है। वेद, ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में महाव्रतों का उल्लेख नहीं है। जिन उपनिषदों, पुराणों और स्मृति ग्रन्थों में महाव्रतों का वर्णन आया है उन पर तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ और
जैनधर्म का प्रभाव है। इस सत्य को महाकवि दिनकर ने स्वीकार करते हुए लिखा है-हिन्दुत्व और जैनधर्म आपस में घुल-मिल कर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं। अन्य स्वतंत्र चिन्तकों ने भी इस सत्य को बिना संकोच स्वीकार किया है। डॉ. डांडेकर आदि का भी यही अभिमत रहा है।
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