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१० भगवती सूत्र : एक परिशीलन
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यहाँ के लोग अधिक सुसंस्कृत थे। जब हम वेदों के संहिता विभाग और ब्राह्मण ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन करते हैं तो उन ग्रन्थों में आर्यों के संस्कारों का प्राधान्य दृग्गोचर होता है, पर उसके पश्चात् लिखे गये आरण्यक उपनिषद्, धर्मशास्त्र, स्मृतिशास्त्र आदि जो वैदिक परम्परा का साहित्य है, उसमें काफी परिवर्तन हुआ है। बाहर से आए हुए आर्यों ने भारतीय संस्कारों को इस प्रकार से ग्रहण किया कि वे अभारतीय होने पर भी भारतीय बन गए। इन नये संस्कारों का मूल अवैदिक परम्परा में रहा हुआ है। वह अवैदिक परम्परा जैन और बौद्ध परम्परा है। अवैदिक परम्परा के प्रभाव के कारण ही जिन विषयों की चर्चा वेदों में नहीं हुई, उनकी चर्चा उपनिषद् आदि में हुई है। वेदों में आत्मा, पुनर्जन्म, व्रत आदि की चर्चाएं नहीं थीं, पर उपनिषदों में इन पर खुलकर चर्चाएँ हुई हैं और आचारसंहिता में भी परिवर्तन आया है। इस परिवर्तन का मूल आधार अवैदिक परम्परा रही है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि वेदों के पश्चात् जो ग्रन्थ निर्मित हुए उन पर श्रमणसंस्कृति की छाप स्पष्ट रूप से निहारी जा सकती है।
वेदों में सृष्टि तत्त्व के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है तो श्रमणसंस्कृति में संसारतत्त्व पर गहराई से विचार किया गया है। वैदिक दृष्टि से सृष्टि के मूल में एक ही तत्त्व है तो श्रमणसंस्कृति ने संसारतत्त्व के मूल में जड़ और चेतन ये दो तत्त्व माने हैं। वैदिक परम्परा में सृष्टि कब उत्पन्न हुई ? इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया गया है तो श्रमणसंस्कृति की दृष्टि से संसारचक्र अनादि काल से चल रहा है। उसका न तो आदि है और न अन्त ही है। वेदों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों की चर्चा नहीं हुई है। यहाँ तक कि हिंसा और परिग्रह पर बल दिया गया है। वाजसनेयीसंहिता ३० में पुरुषमेधयज्ञ में १८४ पुरुषों के वध का संकेत किया गया है। ऋग्वेद ३१ विष्णुस्मृति, १२ मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में भी यज्ञ-याग के लिए की गई हिंसा को हिंसा नहीं समझा गया है । 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' जैसे गर्हित सूत्र बनाए गए थे । श्रमणसंस्कृति के दिव्य प्रभाव से ही वेदों के पश्चात् निर्मित साहित्य में व्रतों की चर्चाएँ हुई हैं।
डॉ. हरमन जैकोबी का अभिमत है कि जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से उधार लिए है | ३४ ब्राह्मण संन्यासी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सन्तोष और मुक्तता - इन महाव्रतों का पालन करते थे जो आगे चलकर जैन महाव्रतों का
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