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२३२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
निक्षेप-नामादिकों में वस्तु का न्यास करना, रखना निक्षेप है। अथवा नामादि से वस्तु में भेद करने के उपाय को निक्षेप कहते हैं। निक्षेप विषय है
और नय विषयी है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से निक्षेप चार प्रकार का है।
नियतिवाद-जो कार्य या पर्याय जिस निमित्त के द्वारा जिस द्रव्य में, जिस क्षेत्र में व काल में जिस प्रकार से होना होता है, वह कार्य उसी निमित्त के द्वारा उसी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव में उसी प्रकार से होता है, ऐसी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावरूप चतुष्टय से समुदित नियत कार्य व्यवस्था का प्रतिपादन नियतिवाद है। होनहार या भवितव्यतावाद भी इसे कहते हैं।
निर्जरा-पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय निर्जरा है। यह दो प्रकार की है-सविपाक और अविपाक। यथासमय स्वयं कर्मों का उदय में आ-आकर झड़ते रहना सविपाक तथा तपादि अनुष्ठानों द्वारा समय से पूर्व झड़ना अविपाक निर्जरा है। मूल कर्म प्रकृतियों की दृष्टि से निर्जरा आठ प्रकार की भी है। और कर्मों के रस को क्षीण करने के विभिन्न प्रकारों की अपेक्षा इसके संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं। द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा से भी निर्जरा के दो भेद हैं। कर्म शक्ति के निर्मूलन में समर्थ जीव का उपयोग भाव निर्जरा है और उस शुद्धोपयोग की सामर्थ्य से नीरसीभूत पूर्वोपार्जित कर्मपुद्गलों का एकदेश क्षय होना द्रव्यनिर्जरा है।
निर्माण नामकर्म-जिस कर्म के निमित्त से शरीर के अंगोपांगों की रचना होती है।
निर्वाण-परतन्त्रता की निवृत्ति अथवा शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि निर्वाण है।
निरुपक्रम-सोपक्रम आयु-जो आयु पूरी यथाकाल भोगे बिना ही अकाल में टूट जाय, वह सोपक्रम और जो आयु बंधं के अनुसार पूरी भोगी जाय, बीच में नहीं टूटे, वह निरुपक्रम आयु है, जैसे-तीर्थङ्कर, देव, नारक आदि की आयु।
नैगमनय-"नैकोगमो” अर्थात् द्वैतग्राही हो अर्थात् जो मुख्य गौण रूप से दो धर्मों को, दो धर्मियों को अथवा धर्म व धर्मों दोनों को विषय करता है, वह नैगमनय है।
परघात नाम कर्म-पर, अन्य जीवों के घात को परघात कहते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर में पर को घात करने के कारणभूत पुद्गल निष्पन्न
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