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भगवती सूत्र : एक परिशीलन २३१ नय-प्रतिपक्षी अर्थात् विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या एक धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है। अथवा जीवादि पदार्थों को जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, वे नय हैं। नय के दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक
और पर्यायार्थिक, अथवा निश्चय और व्यवहार। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत-इस प्रकार सात नय भी हैं। और नय अनन्त भी हो सकते हैं क्योंकि वक्ता के अभिप्राय अनन्त होते हैं।
नर-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का नयन करने वाले "नर" कहे जाते हैं।
नरक और नारक जीव-प्रचुर रूप से पाप कर्मों के फलस्वरूप अनेकों प्रकार से असह्य दुःखों को भोगने वाले जीवविशेष नारक कहलाते हैं। उनकी गति या उनके रहने का स्थान शीत, उष्ण, दुर्गंध आदि असंख्य दुःखों की तीव्रता का केन्द्र होता है। वहां जीव बिलों अथवा कुंभियों (सुरंगों) में उत्पन्न होते हैं और रहते हैं। क्षेत्रकृत, असुरकुमार देवकृत, शारीरिक, मानसिक आदि अनेक प्रकार की वेदनाएं होती हैं। नारक निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया वाले होते हैं। छठी नरक तक के नारकियों के त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशु आदि अनेक आयुध रूप विक्रिया होती है। सप्तम नरक में गाय बराबर कीड़े, लोह, चींटी आदि रूप से एकत्व विक्रिया होती है। ये दाढ़ी, मूंछ से रहित होते हैं। आयु पूर्ण होने पर नारकियों के शरीर वायु से ताड़ित मेघों के समान निःशेष-विलीन हो जाते हैं।
नास्तिक-देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा नहीं करने वाला, आत्मापरमात्मा पर विश्वास नहीं करने वाला, परलोक की मान्यता से रहित जीव नास्तिक है।
निगोद-एक शरीर का आश्रय करके अनन्त जीव जिसमें रहें, अर्थात् एक ही शरीर को आश्रित कर जिन जीवों के आहार, आयु, श्वासोच्छ्वास आदि समान हों, उन्हें निगोद कहते हैं। जैसे-कंद-मूल, आलू, गाजर, अदरक, रतालु, लहसुन, प्याज आदि।
निमित्तकारण-जो कारण कार्य के होने में सहायक हो और कार्य समाप्ति पर पृथक् हो जाय, जैसे-घड़े के बनने में चाक, दण्ड, कुम्हार आदि निमित्त हैं। .
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