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२१४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
"कुलत्था" धान्य भी सरिसव की तरह अनेक प्रकार का होता है। उसके शस्त्र-परिणत, एषणीय, याचित और लब्ध कुलत्था श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य है, शेष अभक्ष्य है।
सोमिल-भगवन् ! आप एक हैं या दो हैं ? अक्षय, अव्यय और अवस्थित हैं या भूत, भविष्यत् वर्तमान के अनेक रूपधारी हैं ?
महावीर-मैं एक भी हूँ और दो भी हूँ। अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित भी हूँ, फिर अपेक्षा से भूत, भविष्यत् और वर्तमान के नाना रूपधारी भी हूँ।
सोमिल-वह कैसे भगवन् ?
महावीर-सोमिल ! मैं द्रव्य रूप से एक आत्म-द्रव्य हूँ। उपयोग गुण की दृष्टि से ज्ञान उपयोग और दर्शन उपयोग रूप चेतना के भेद से दो हूँ। आत्म प्रदेशों में कभी क्षय, व्यय और न्यूनाधिकता नहीं होती इसलिए अक्षय, अव्यय और अवस्थित हूँ। परन्तु परिवर्तनशील उपयोग पर्यायों की अपेक्षा भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान के नाना रूपधारी भी हूँ।
भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टि से सोमिल के सभी प्रश्नों का सही समाधान कर दिया।
-भगवती १८/१०, सूत्र १५/१८ जीव सान्त अनन्त
परिव्राजक आर्य स्कन्दक के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहाद्रव्य दृष्टि से जीव सान्त है। क्षेत्र दृष्टि से जीव सान्त है। काल दृष्टि से जीव अनन्त है।
भाव दृष्टि से जीव अनन्त है। जीव शाश्वत अशाश्वत
जमाली के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-जीव शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है।
द्रव्य दृष्टि से जीव शाश्वत है। वह कभी भी नहीं था, नहीं है और नहीं होगा-ऐसा नहीं; वह था, है और होगा अतः वह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित है। पर्याय की दृष्टि जीव से अशाश्वत है वह
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