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अनेकान्तवाद सम्बन्धी चर्चाएँ
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जीव सान्त व अनन्त जीव शाश्वत व अशाश्वत
सकम्प और निष्कम्प • सवीर्य और अवीर्य
जैन दर्शन की चिन्तन शैली का नाम अनेकान्त है और प्रतिपादन शैली का नाम स्याद्वाद है। जानने का कार्य ज्ञान का है और बोलने का कार्य वाणी का है। ज्ञान की शक्ति असीम है और वाणी की शक्ति ससीम है। ज्ञेय और ज्ञान अनन्त है पर वाणी अनन्त नहीं है। अतः अनन्त ज्ञान अनन्त ज्ञेयों को जानकर भी वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
सूत्रकृतांग में भिक्ष किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे? प्रस्तत प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा- “विभज्यवाद का प्रयोग करे"। टीकाकारों ने विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद किया है। अनेकान्तवाद, नयवाद, अपेक्षावाद या पृथक्करण करके या विभाजन करके किसी तत्त्व का विवेचन करना। अपेक्षाभेद से स्यात् शब्द का प्रयोग आगम में अनेक स्थलों पर हुआ है।
स्याद्वाद का उद्गम अनेकान्त वस्तु है। उस वस्तु स्वरूप के यथार्थ ग्रहण के लिए अनेकान्त दृष्टि है। स्याद्वाद उस दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है। यह अपेक्षाभेद से विरोधी धर्म युगलों का विरोध मिटाने वाला है। जो वस्तु सत् है उस रूप में वह असत् नहीं है। स्व-रूप की दृष्टि से सत् है तो पर-रूप की दृष्टि से असत् है। दो निश्चित दृष्टिबिन्दुओं के आधार पर वस्तु-तत्त्व का विश्लेषण करने वाला वाक्य कभी संशयरूप नहीं हो सकता। अतः स्याद्वाद को अपेक्षावाद या कथंचिद्वाद भी कहते हैं।
श्रमण भगवान महावीर ने स्याद्वाद पद्धति से अनेक प्रश्नों का समाधान किया है।
एक बार भगवान महावीर वाणिज्यग्राम में पधारे। वेदशास्त्रों के निष्णात सोमिल ने भगवान से पूछ-भगवन् सरिसव भक्ष्य है या अभक्ष्य है?
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