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२०८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
(ङ) केवलज्ञान - जो ज्ञान समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को आत्म-शक्ति से प्रत्यक्ष जानता व देखता है वह केवलज्ञान है।
पाँच प्रकार के ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं और अंतिम तीन प्रत्यक्ष ।
जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है वह परोक्ष है, क्योंकि वह ज्ञान इन्द्रिय मन के आधीन है और जो ज्ञान साक्षात् आत्मा से होता है, इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं रखता वह प्रत्यक्ष कहलाता है । अवधि - ज्ञान और मनः पर्यवज्ञान ये दोनों देश प्रत्यक्ष हैं, केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। आभिनिबोधिक ज्ञान दो प्रकार का है - श्रुतिनिश्रित - श्रुतज्ञान से सम्बन्धि और अश्रुतनिश्रित तथाविधक्षयोपशम भाव से उत्पन्न, श्रुतनिरपेक्ष । अश्रुतनिश्रित चार प्रकार का है
औत्पत्तिकी तथाविधक्षयोपशम भाव से शास्त्राभ्यास के बिना ही उत्पन्न होने वाली बुद्धि औत्पत्तिकी है।
वैनयिकी - गुरु आदि की विनय से उत्पन्न हुई बुद्धि ।
कार्मिकी - शिल्पादि कर्म के अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि ।
पारिणामिकी - चिरकाल तक पूर्वापर पर्यालोचना से एवं वय के परिपाक से उत्पन्न बुद्धि ।
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का है। दर्शन के पश्चात् अवान्तर सामान्य मनुष्यत्व आदि का ज्ञान अवग्रह है ।१७ अवग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष जानने की जिज्ञासा ईहा है । १८ ईहा द्वारा जाने हुए पदार्थ में विशेष निर्णय का होना अवाय है ।१९ और निर्णीत अर्थ को धारण कर रखना धारणा है अर्थात् अवाय ज्ञान जब अत्यन्त दृढ़ बन जाता है, उसे ही धारणा कहते हैं।
अवग्रह के बिना ईहा, अवाय, धारणा नहीं होती, ईहा के अभाव में अवाय, धारणा नहीं होती, ईहा के अभाव में अवाय, धारणा और अवाय के अभाव में धारणा नहीं होती २०
अवग्रह के दो भेदों में व्यंजनावग्रह चक्षु और मन को छोड़कर चार इन्द्रियों से होता है । २१ तथा अर्थावग्रह, ईहा अवाय व धारणा पाँचों इन्द्रियों और मन से होता है।
शिष्य ने प्रश्न किया- भन्ते ! श्रुतज्ञान-परोक्ष कितने प्रकार का है ?
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