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१३२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन कहीं पर घटनाओं के पश्चात् प्रश्नोत्तर आये हैं। जैन आगमों की भाषा को कुछ मनीषी आर्ष प्राकृत कहते हैं। यह सत्य है कि जैन आगमों में भाषा को उतना महत्त्व नहीं दिया है जितना भावों को दिया है। जैन मनीषियों का यह मानना रहा है कि भाषा आत्म-शुद्धि या आत्म-विकास का कारण नहीं है। वह केवल विचारों का वाहन है। मंगलाचरण
प्रस्तुत आगम में प्रथम मंगलाचरण नमस्कार महामंत्र से और उसके पश्चात् 'नमो बंभीए लिवीए' 'नमो सुयस्स' के रूप में किया है। उसके पश्चात् १५वें, १७, २३वें और २६वें शतक के प्रारम्भ में भी “नमो सुयदेवयाए भगवईए" इस पद के द्वारा मंगलाचरण किया गया है। इस प्रकार ६ स्थानों पर मंगलाचरण है, जबकि अन्य आगमों में एक स्थान पर भी मंगलाचरण नहीं मिलता है।
प्रस्तुत आगम के उपसंहार में "इक्कचत्तालीसइमं रासीजुम्मसयं समत्तं" यह समाप्तिसूचक पद उपलब्ध है। इस पद में यह बताया गया है कि इसमें १०१ शतक थे। पर वर्तमान में केवल ४१ शतक ही उपलब्ध होते हैं। समाप्तिसूचक इस पद के पश्चात् यह उल्लेख मिलता है कि-"सव्वाए भगवईए अट्ठतीसं सयं सयाणं (१३८) उद्देसगाणं १९२५" इन शतकों की संख्या अर्थात् अवान्तर शतकों को मिलाकर कुल शतक १३८ हैं और उद्देशक १९२५ हैं।
प्रथम शतक से बत्तीसवें शतक तक और इकतालीसवें शतक में कोई अवान्तर शतक नहीं हैं। तेतीसवें शतक से उनचालीसवें शतक तक जो सात शतक हैं, उनमें बारह-बारह अवान्तर शतक हैं। चालीसवें शतक में इक्कीस अवान्तर शतक हैं। अत: इन आठ शतकों की परिगणना १०५ अवान्तर शतकों के रूप में की गई है। इस तरह अवान्तर शतक रहित तेतीस शतकों
और १०५ अवान्तर शतक वाले आठ शतकों को मिलाकर १३८ शतक बताये गये हैं। किन्तु संग्रहणी पद में जो उद्देशकों की संख्या एक हजार नौ सौ पच्चीस' बताई गई है, उसका आधार अन्वेषणा करने पर भी प्राप्त नहीं होता। प्रस्तुत आगम के मूल पाठ में इसके शतकों और अवान्तर शतकों की उद्देशकों की संख्या दी गई है। उसमें चालीसवें शतक के इक्कीस अवान्तर शतकों में से अन्तिम सोलह से इक्कीस अवान्तर शतकों के उद्देशकों की संख्या स्पष्ट रूप से नहीं दी गई है, किन्तु जैसे इस शतक से, पहले पन्द्रहवें
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