________________
भगवती सूत्र : एक परिशीलन १३१
प्रस्तुत आगम में कितनी ही बातें पुनः पुनः आई हैं। इसका कारण पिष्टपेषण नहीं, अपितु स्थानभेद, पृच्छकभेद और कालभेद है। प्रश्नोत्तर शैली में होने के कारण जिज्ञासु को समझाने के लिए उसकी पृष्ठभूमि बताना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य होता है। जैसा प्रश्नकार का प्रश्न, फिर उत्तर में उसी प्रश्न का पुनरुच्चारण करना और उपसंहार में उस प्रश्न को पुनः दोहराना । कितने ही समालोचकों का यह भी कहना है कि अन्य आगमों की तरह भगवती का विवेचन विषयबद्ध, क्रमबद्ध और व्यवस्थित नहीं है। प्रश्नों का संकलन भी क्रमबद्ध नहीं हुआ है। उसके लिए मेरा नम्र निवेदन है कि यह इस आगम की अपनी महत्ता है, प्रामाणिकता है। गणधर गौतम के या अन्य जिस किसी के भी अन्तर्मानस में जिज्ञासाएं उबुद्ध हुईं, उन्होंने भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत कीं और भगवान् ने उनका समाधान किया। संकलनकर्त्ता गणधर सुधर्मा स्वामी ने उस क्रम में अपनी ओर से कोई परिवर्तन नहीं किया और उन प्रश्नों को उसी रूप में रहने दिया । यह दोष नहीं, किन्तु आगम की प्रामाणिकता को ही पुष्ट करता है।
कुछ समालोचक यह भी आक्षेप करते हैं कि प्रस्तुत आगम में राजप्रश्नीय, औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, प्रश्नव्याकरण और नन्दी सूत्र में वर्णित विषयों के अवलोकन का सूचन किया गया है। इसलिए भगवती की रचना इन आगमों की रचना के बाद में होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में भी यह निवेदन है कि यह जो सूचन है वह आगम-लेखन के काल का है। आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने जब आगमों का लेखन किया तब क्रमशः आगम नहीं लिखे। पूर्व लिखित आगमों में जो विषयवर्णन आ चुका था, उसकी पुनरावृत्ति से बचने के लिए पूर्व लिखित आगमों का निर्देश किया है। यह सत्य है कि भगवतीसूत्र के अर्थ के प्ररूपक स्वयं भगवान् महावीर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर सुधर्मा हैं ।
प्रस्तुत आगम की भाषा प्राकृत है। इसमें शौरसेनी के प्रयोग भी कहीं-कहीं पर प्राप्त होते हैं । किन्तु देशी शब्दों के प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं। भाषा सरल व सरस है। अनेक प्रकरण कथाशैली में लिखे गये हैं । जीवनप्रसंगों, घटनाओं और रूपकों के माध्यम से कठिन विषयों को सरल करके प्रस्तुत किया गया है। मुख्य रूप से यह आगम गद्यशैली में लिखा हुआ है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने की दृष्टि से संग्रहणीय गाथाओं के रूप में पद्य भाग भी प्राप्त होता है । कहीं-कहीं पर स्वतन्त्र रूप से प्रश्नोत्तर हैं, तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org