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भगवती सूत्र : एक परिशीलन १३३ अवान्तर शतक से पहले प्रत्येक की उद्देशक संख्या ग्यारह बताई है, उसी तरह शेष अवान्तर शतकों में से प्रत्येक की उद्देशक संख्या ग्यारह-ग्यारह मान लें तो व्याख्याप्रज्ञप्ति के कुल उद्देशकों की संख्या "एक हजार आठ सौ तेरासी" होती है। कितनी प्रतियों में "उद्देसगाण" इतना ही पाठ प्राप्त होता है। संख्या का निर्देश नहीं किया गया है। इसके बाद एक गाथा है, जिसमें व्याख्याप्रज्ञप्ति की पदसंख्या चौरासी लाख बताई है। आचार्य अभयदेव ने इस गाथा की "विशिष्ट सम्प्रदायगम्यानि" कह कर व्याख्या की है। इसके बाद की गाथा में संघ की समुद्र के साथ तुलना की है और गौतम प्रभृति गणधरों को व भगवती प्रभृति द्वादशांगी रूप गणिपिटक को नमस्कार किया है। अन्त में शान्तिकर श्रुतदेवता का स्मरण किया गया है। साथ ही कुम्भधर ब्रह्मशान्ति यक्ष “वैरोट्या विद्यादेवी और अन्त हुण्डी" नामक देवी को स्मरण किया है। आचार्य अभयदेव का मन्तव्य है कि जितने भी नमस्कारपरक उल्लेख हैं, वे सभी लिपिकार और प्रतिलिपिकार द्वारा किये गये हैं। मुर्धन्य मनीषियों का मानना है कि नमोक्कार महामंत्र प्रथम बार इस अंग में लिपिबद्ध हुआ है।
यह आगम प्रश्नोत्तर शैली में आबद्ध है। गौतम की जिज्ञासाओं का श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा सटीक समाधान दिया गया है। इस अंग में दर्शन सम्बन्धी, आचार सम्बन्धी, लोक-परलोक सम्बन्धी आदि अनेक विषयों की चर्चाएं हुई हैं। प्रश्नोत्तरशैली शास्त्ररचना की प्राचीनतम शैली है। इस शैली के दर्शन वैदिक परम्परा के मान्य उपनिषद् ग्रन्थों में भी होते हैं। यह आगम ज्ञान का महासागर है। कुछ बातें ऐसी भी हैं जो सामान्य पाठकों की समझ में नहीं आतीं। उस सम्बन्ध में वृत्तिकार आचार्य अभयदेव भी मौन रहे हैं। मनीषियों को उस पर चिन्तन करने की आवश्यकता है।
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