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भगवती सूत्र : एक परिशीलन १२७ आत्मनिन्दा करने से दोषों से बचा जाता है और आत्मा संयम में संस्थापित होता है। परनिन्दा असंयम है। वह पीठ के मांस खाने के समान निन्दनीय है। परं स्व-निन्दा वही व्यक्ति कर सकता है जिसे अपने दोषों का परिज्ञान है । इसीलिए आगमसाहित्य में साधक के लिए 'निन्दामि गरिहामि' आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक १० में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है - ईर्यापथिकी और साम्परायिकी । क्या ये दोनों क्रियाएं साथ-साथ होती हैं ?
भगवान् ने समाधान दिया - प्रस्तुत कथन मिथ्या है, क्योंकि जीव एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है। ईर्यापथिकी क्रिया कषायमुक्त स्थिति में होती है तो साम्परायिकी क्रिया कषाययुक्त स्थिति में होती है। ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं।
भगवती में विविध प्रकार की वनस्पतियों का भी उल्लेख है । वनस्पतिविज्ञान पर प्रज्ञापना में भी विस्तार से वर्णन है। वनस्पति अन्य जीवों की तरह श्वास ग्रहण करती है, निःश्वास छोड़ती है। आहार आदि ग्रहण करती है। इनके शरीर में भी चय- अपचय, हानि-वृद्धि, सुख-दुःखात्मक अनुभूति होती है। सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बोस ने अपने परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति में क्रोध भी पैदा होता है, और वह प्रेम भी प्रदर्शित करती है। प्रेम-पूर्ण सद्व्यवहार से वनस्पति पुलकित हो जाती है और घृणापूर्ण व्यवहार से मुर्झा जाती है। बोस के प्रस्तुत परीक्षण ने समस्त वैज्ञानिक जगत् को एक अभिनव प्रेरणा प्रदान की है । जिस प्रकार वनस्पति के संबंध में वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है। कि उसमें जीवन है, इसी प्रकार सुप्रसिद्ध भूगर्भ वैज्ञानिक फ्रान्सिस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "Ten Years under earth" में लिखा - मैंने अपनी विभिन्न यात्राओं के दौरान पृथ्वी के ऐसे-ऐसे विचित्र स्वरूप देखे हैं जो आधुनिक पदार्थविज्ञान के विपरीत हैं । उस स्वरूप को वर्तमान वैज्ञानिक अपने आधुनिक नियमों से समझा नहीं सकते। मुझे ऐसा लगता है, प्राचीन मनीषियों ने पृथ्वी में जो जीवत्व शक्ति की कल्पना की है वह अधिक यथार्थ है, सत्य है। भगवतीसूत्र में तेजोलेश्या की अपरिमेय शक्ति प्रतिपादित की है। वह अंग, बंग, कलिंग आदि सोलह जनपदों को नष्ट कर सकती है। वह
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