________________
१२२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन कहलाता है। वह अविभागी अंश सूक्ष्मतम है, जिसका पुनः अंश नहीं बनता। जब तक वह स्कन्धगत है वह प्रदेश है और अपनी पृथक् अवस्था में वह परमाणु है। भगवतीसूत्र शतक ५, उद्देशक ७ में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि परमाणुपुद्गल अविभाज्य है, अछेद्य है, अभेद्य है, अदाह्य है और अग्राह्य है। वह तलवार की तीक्ष्ण धार पर भी रह सकता है। तलवार उसका छेदन-भेदन नहीं कर सकती और न जाज्वल्यमान अग्नि उसको जला सकती है। प्रदेश और परमाणु में केवल स्कन्ध से अपृथक्भाव और पृथक्भाव का अन्तर है। अनुसंधान से यह निश्चित हो चुका है कि परमाणुवाद की चर्चा सर्वप्रथम भारत में हुई और उसका श्रेय जैन मनीषियों को है।३०९ ___ भगवतीसूत्र शतक आठ, उद्देशक पहले में जीव और पुद्गल की पारस्परिक परिणति को लेकर पुद्गल के तीन भेद किये हैं-१. प्रयोगपरिणत-जो पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किये गए हैं वे प्रयोगपरिणत हैं, जैसे-इन्द्रियाँ, शरीर आदि के पुद्गल। २. मिश्र परिणत-ऐसे पुद्गल जो जीव द्वारा मुक्त होकर पुनः परिणत हो चुके हैं, जैसे-मल-मूत्र, श्लेष्म केश आदि। ३. विनसापरिणत-ऐसे पुद्गल जिनके परिणमन में जीव की सहायता नहीं होती। वे स्वयं ही परिणत होते हैं, जैसे-बादल, इन्द्रधनुष आदि। .
शतक १४, उद्देशक ४ में यह बताया है कि पुद्गल शाश्वत भी हैं और अशाश्वत भी हैं। वे द्रव्यरूप से शाश्वत और पर्यायरूप से अशाश्वत हैं। परमाणु संघात (स्कन्ध) रूप में परिणत होकर पुनः परमाणु हो जाता है। इस कारण से वह द्रव्य की दृष्टि से चरम नहीं है किन्तु क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से वह चरम भी है और अचरम भी है।
भगवतीसत्र शतक ५, उद्देशक ८ में बताया है कि परमाणु, परमाणु के रूप में कम से कम रहे तो एक समय और अधिक से अधिक समय तक रहे तो असंख्यात काल तक रहता है। इसी प्रकार स्कन्ध, स्कन्ध के रूप में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात काल तक रहता है। इसके बाद अनिवार्य रूप से उसमें परिवर्तन होता है। एक परमाणु स्कन्धरूप में परिणत होकर पुनः परमाणु हो जाय तो कम से कम एक समय
और अधिक से अधिक असंख्यात काल लग सकता है। व्यणुक-आदि व त्र्यणुक-आदि स्कन्धरूप में परिणत होने के बाद व परमाणु पुनः परमाणु रूप में आये तो कम से कम एक समय और अधिक से आधक अनन्त काल लग सकता है। एक परमाणु या स्कन्ध किसी आकाशप्रदेश में अवस्थित है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org