SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० भगवती सूत्र : एक परिशीलन __ भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक २ में गणधर गौतम ने यह जिज्ञासा प्रस्तुत की कि प्राणी स्वकृत सुख और दुःख को भोगता है या परकृत सुख और दुःख को भोगता है? भगवान् महावीर ने यह स्पष्ट किया कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख को भोगता है, परकृत सुख-दुःख को नहीं। ___भगवतीसूत्र शतक ६, उद्देशक ९ में और शतक ८, उद्देशक १0 में कर्म की आठ प्रकृतियाँ बताई हैं और उनके अल्प-बहुत्व पर भी चिन्तन किया है और शतक ६, उद्देशक ३ में आठों कर्मों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला है। शतक ६, उद्देशक ३ में कर्म कौन बाँधता है ? इसके उत्तर में कहा है कि तीनों वेद वाले कर्म बाँधते हैं। असंयत, संयत, संयतासंयत, सभी कर्म बाँधते हैं किन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत यानी सिद्ध कर्म नहीं बाँधते हैं। इसी प्रकार संज्ञी, भवसिद्धिक, चक्षुदर्शनी, पर्याप्त और अपर्याप्त, परीत, अपरीत, मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी, आहारक, अनाहारक कौन कर्म बाँधते हैं, इस पर भी गहराई से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। शतकं १८, उद्देशक ३ में माकन्दीपुत्र ने भगवान् से पूछा-एक जीव ने पापकर्म किया है या अब करेगा, इन दोनों में क्या अन्तर है ? भगवान् ने बाण के रूपक द्वारा इस प्रश्न का समाधान दिया। शतक १, उद्देशक ३ में गणधर गौतम ने पूछा-जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार बांधता है ? इस प्रश्न के समाधान में भगवान् ने बाँधने की सारी प्रक्रिया प्रस्तुत की। ___ इस तरह विविध प्रश्न कर्म के सम्बन्ध में विभिन्न जिज्ञासुओं ने भगवान् महावीर के सामने रखे और भगवान ने उन प्रश्नों का सटीक समाधान प्रस्तुत किया। वस्तुतः जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त बहुत ही अनूठा और अद्भुत है। आगमसाहित्य में आये हुए कर्मसिद्धान्त के बीजसूत्रों को परवर्ती आचार्यप्रवरों ने इतना अधिक विस्तृत किया कि आज लगभग एक लाख श्लोक प्रमाण श्वेताम्बर कर्म साहित्य है, तो दो लाख श्लोक प्रमाण दिगम्बर मनीषियों द्वारा लिखा हुआ कर्म साहित्य है। मैंने 'कर्म विज्ञान' नामक ग्रन्थ भाग-एक से लेकर चार तक में विविध दृष्टियों से विस्तार से कर्म पर चिन्तन किया है अतः पाठक उन्हें पढ़ें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy