________________
भगवती सूत्र : एक परिशीलन ११९ आहार से। कर्म मूर्त हैं क्योंकि उनसे वेदना होती है, जिस प्रकार अग्नि से। यदि कर्म अमूर्त होते तो उनके कारण सुख-दुःख आदि की वेदना नहीं हो सकती थी।
जिज्ञासा हो सकती है कि यदि कर्म मूर्त है तो फिर अमूर्त आत्मा पर कर्म का प्रभाव किस प्रकार गिरता है? वायु और अग्नि मूर्त हैं तो उनका अमूर्त आकाश पर प्रभाव नहीं होता। वैसे ही अमूर्त आत्मा पर मूर्तकर्म का प्रभाव नहीं होना चाहिए। उत्तर में निवेदन है कि ज्ञान गुण अमूर्त है, उस अमूर्त गुण पर मदिरा आदि मूर्त वस्तुओं का असर होता है। वैसे ही अमूर्त जीव पर मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त अनादिकालिक कर्मसंयोग के कारण आत्मा कथंचित् मूर्त है। अनादिकाल से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध रहा हुआ होने से स्वरूप से अमूर्त होने पर भी कथंचित् वह मूर्त है। इस दृष्टि से मूर्तकर्म का आत्मा पर प्रभाव पड़ता है। जब तक आत्मा कार्मण शरीर से मक्त नहीं होता तब तक कर्म अपना प्रभाव दिखाते ही हैं। जैन मनीषियों ने आत्मा और कर्म का सम्बन्ध 'नीर-क्षीरवत्' या 'अग्नि-लोहपिण्डवत' माना है। यहाँ पर यह भी प्रश्न समुत्पन्न हो सकता हैकर्म जड़ हैं। वे चेतन को प्रभावित करते हैं तो फिर मुक्तावस्था में भी वे आत्मा को प्रभावित करेंगे। फिर मुक्ति का अर्थ क्या रहा? यदि वे एक-दूसरे को प्रभावित नहीं करते हैं तो फिर बन्ध की प्रक्रिया कैसे होगी? इस प्रश्न का उत्तर 'समयसार'३०२ ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार दिया हैसोना कीचड़ में रहता है तो भी उस पर जंग नहीं लगता, जबकि लोहे पर जंग आ जाता है। शद्धात्मा कर्मपरमाणओं के बीच में रहकर भी वह विकारी नहीं बनता। कर्मपरमाणु उसी आत्मा को प्रभावित करते हैं, जो रागद्वेष से ग्रसित हैं।
जब रागादि भावकर्म होते हैं तभी द्रव्यकर्मों को आत्मा ग्रहण करता है। भावकर्म के कारण ही द्रव्यकर्म का आस्रव होता है और वही द्रव्यकर्म समय आने पर भावकर्म का कारण बन जाता है। इस प्रकार का कर्मप्रवाह सतत चलता रहता है। कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कब से हुआ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए पूर्वाचार्यों ने कहा है कि एक कर्म-विशेष की अपेक्षा कर्म सादि है और कर्मप्रवाह की दृष्टि से वह अनादि है। यह नहीं कि आत्मा पहले कर्ममुक्त था, बाद में कर्म से आबद्ध हुआ। कर्म अनादि हैं, अनादि काल से चले आ रहे हैं और जब तक रागद्वेषरूपी कर्मबीज जल नहीं जाता है तब तक कर्मप्रवाह-परम्परा भी समाप्त नहीं होती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org