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________________ ११८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन शतक एक, उद्देशक चार में गणधर गौतम ने मोक्ष के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की कि मोक्ष कौन प्राप्त करता है ? भगवान् ने कहा- जो चरमशरीरी है, जिसने केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त किया है वही आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है। मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है। कर्ममल के अभाव में कर्मबन्धन भी नहीं रहता और बन्धन का अभाव ही मुक्ति है । साधक का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। इस प्रकार जीव के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। यह चिन्तन इतना व्यापक है कि उस सम्पूर्ण चिन्तन को यहाँ पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । अतः मैं जिज्ञासु पाठकों को यह नम्र निवेदन करना चाहूंगा कि वे मूल आगम का पारायण करें, जिससे जैनदर्शन के जीवविज्ञान का सम्यकपरिज्ञान हो सकेगा। कर्म : एक चिन्तन ' • जिस प्रकार जीवविज्ञान के सम्बन्ध में विस्तृत चिन्तन है उसी तरह कर्मविज्ञान के सम्बन्ध में भी विविध जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की गई हैं। आचार्य देवचन्द्र ने कर्म की परिभाषा करते हुए लिखा है- जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है। पं. सुखलालजी ने लिखा है - मिथ्यात्व कषाय प्रभृति कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है। कर्म के भी द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं। आत्मा के मानसिक विचार भावकर्म हैं और वे मनोभाव जिस निमित्त से होते हैं या जो उनका प्रेरक है वह द्रव्यकर्म है। आचार्य नेमिचन्द्र के शब्दों में कहा जाय तो पुद्गलपिण्ड द्रव्यकर्म हैं और चेतना को प्रभावित करने वाले भावकर्म हैं। आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्री में द्रव्यकर्म को आवरण और भावकर्म को दोष के नाम से सूचित किया है। क्योंकि द्रव्यकर्म आत्मशक्तियों के प्रकट होने में बाधक है। इसलिए उसे आवरण कहा और भावकर्म स्वयं आत्मा की विभाव अवस्था है, अतः दोष है । भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त है। दोनों का परस्पर में बीजांकुर की तरह कार्यकारणभाव सम्बन्ध है । जैनदृष्टि से द्रव्यकर्म पौद्गलिक होने से मूर्त हैं। कारण से कार्य का अनुमान होता है, वैसे ही कार्य से भी कारण का अनुमान होता है । इस दृष्टि से शरीर प्रभृति कार्य मूर्त्त हैं तो उनका कारण कर्म भी मूर्त होना चाहिए। कर्म की मूर्तता को सिद्ध करने के लिए मनीषियों ने कुछ तर्क इस प्रकार दिए हैं - कर्म मूर्त हैं क्योंकि उनसे सुख-दुःख आदि का अनुभव होता है, जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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