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११४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन मन और उसके प्रकार
भगवतीसूत्र शतक तेरह, उद्देशक सात में गणधर गौतम ने मन के सम्बन्ध में जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की हैं। आगम साहित्य में मन के लिए 'अनिन्द्रिय' और 'नोइन्द्रिय' शब्दों का प्रयोग हुआ है। मन इन्द्रिय तो नहीं है पर इन्द्रिय-सदृश है। वह भी इन्द्रियों के समान विषयों को ग्रहण करता है। मन के भी द्रव्यमन और भावमन ये दो प्रकार हैं। द्रव्यमन पुद्गल रूप होने से जड़ है तो भावमन ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम रूप होने से चेतन-स्वरूप है। भावमन सभी जीवों के होता है पर द्रव्यमन सभी के नहीं होता। प्रस्तुत आगम में द्रव्यमन के सम्बन्ध में ही जिज्ञासा की गयी है कि मन आत्मा है या अन्य? भगवान् महावीर ने कहा-मन आत्मा नहीं पर पुद्गलस्वरूप है। मन पुद्गलस्वरूप है तो वह रूपी है या अरूपी है ? समाधान दिया गयामन रूपी है। पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की-मन जीव के होता है या अजीव के ? समाधान-मन जीव के होता है, अजीव के नहीं और उस मन के सत्यमन, असत्यमन, मिश्रमन और व्यवहारमन, ये चार प्रकार हैं। दिगम्बरपरम्परा के अनुसार मन का स्थान हृदय में है, उन्होंने मन का आकार आठ पंखुड़ी वाले कमल के सदृश माना है, पर श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है। 'यत्र पवनस्तत्र मनः' शरीर में जहाँ-जहाँ पर पवन है, वहाँ-वहाँ पर मन है। जैसे पवन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है वैसे मन भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। भाव और उसके प्रकार
भगवतीसूत्र शतक सत्रह, उद्देशक पहले में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! भाव के कितने प्रकार हैं ? भगवान महावीर ने समाधान दिया-भाव के पांच प्रकार हैं। भाव का अर्थ है-कर्मों के संयोग या वियोग से होने वाली जीव की अवस्था-विशेष। संसारी जीव अपने शुद्धस्वरूप को प्राप्त नहीं है। अनादिकाल से वह कर्ममल से लिप्त है। जब तक कर्ममल नष्ट नहीं होता तब तक बन्ध, उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम प्रभृति से होने वाली नाना प्रकार की परिणतियों में वह परिणत होता रहता है। कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था औदयिक भाव है। इसे अपर शब्दों में उदयनिष्पन्न भाव भी कह सकते हैं। यह आठों कर्मों का होता है। जब मोहकर्म का उपशम होता है तब आत्मा की जो अवस्था होती है वह औपशमिक भाव है। उदय आठों कों का होता है पर उपशम केवल
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