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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन ११३ चेतना का अभिन्न अंग है। इसलिए आत्मा और ज्ञान के बीच में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं रहता। पर जो आत्मा कर्मपुद्गलों से आबद्ध है, उसका ज्ञान आवृत हो जाता है। उस ज्ञान को प्रकट करने का माध्यम इन्द्रियाँ हैं । इन्द्रियों के भी दो प्रकार हैं- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । इन्द्रियों का आकार विशेष द्रव्येन्द्रिय है। यह आकार संरचना पौद्गलिक है इसलिए द्रव्येन्द्रिय- के भी निवृत्ति द्रव्येन्द्रिय और उपकरण द्रव्येन्द्रिय ये दो प्रकार हैं। यहाँ पर निवृत्ति का अर्थ आकार - रचना है। यह आकार - रचना बाह्य और आभ्यन्तर रूप से दो प्रकार की है। बाह्य आकार प्रत्येक जीव का पृथक्-पृथक् होता है, पर सभी का आभ्यन्तर आकार एक सदृश होता है । द्रव्येन्द्रिय का दूसरा प्रकार उपकरणद्रव्येन्द्रिय है । इन्द्रिय की आभ्यन्तर निवृत्ति में स्व-स्व विषय को ग्रहण करने की जो शक्ति-विशेष है, वह उपकरणद्रव्येन्द्रिय है। उपकरणद्रव्येन्द्रिय के क्षतिग्रस्त हो जाने पर निवृत्तिद्रव्यन्द्रिय कार्य नहीं कर पाती । भावेन्द्रिय के भी लब्धिभावेन्द्रिय और उपयोगभावेन्द्रिय ये दो प्रकार हैं। ज्ञान करने की क्षमता लब्धिभावेन्द्रिय है। यह शक्ति ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है । शक्ति प्राप्त होने पर भी वह शक्ति तब तक कार्यकारिणी नहीं होती जब तक उसका उपयोग न हो। अतः ज्ञान करने की शक्ति और उस शक्ति को काम में लेने के साधन उपलब्ध करने पर भी उपयोगभावेन्द्रिय के अभाव में सारी उपलब्धियाँ निरर्थक हो जाती हैं। भाषा भगवतीसूत्र शतक तेरह, उद्देशक सात में भाषा के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है। भाषावर्गणा के पुद्गल किस प्रकार ग्रहण किये जाते हैं, आदि के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। वैशेषिक और नैयायिक दर्शन की तरह जैनदर्शन शब्द को आकाश का गुण नहीं मानता, पर वह भाषावर्गणा के पुद्गलों का एक प्रकार का विशिष्ट परिणाम मानता है। जो शब्द आत्मा के प्रयास से समुत्पन्न होते हैं वे प्रयोगज हैं और बिना प्रयास के जो समुत्पन्न होते हैं वे वैसिक हैं, जैसे बादलों की गर्जना । भाषा रूपी है या अरूपी है ? इसके उत्तर में कहा गया- भाषा रूपी है, अरूपी नहीं । गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि जीवों की भाषा होती है या अजीवों की ? भगवान् ने समाधान दिया - जीव ही भाषा बोलते हैं, अजीव नहीं और जो बोली जाती है वही भाषा है। भाषा के सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र की प्रस्तावना में हमने विस्तार से लिखा है । अतः जिज्ञासु उसका अवलोकन करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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