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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन ९९ मिलता है। मज्झिमनिकाय में निर्ग्रन्थपरम्परा को ब्रह्मचर्यवास में और आजीवकपरम्परा को अब्रह्मचर्यवास में लिया है / २८५ इतिहासवेत्ता डा. सत्यकेतु२८६ के अभिमतानुसार श्रमण भगवान् महावीर और गोशालक में तीन बातों का मतभेद था । उन तीनों बातों में एक स्त्रीसहवास भी है। इन सब अवतरणों से यह स्पष्ट है कि गोशालक की मान्यता में स्त्रीसहवास पर प्रतिबन्ध नहीं था । तथापि उसका मत इतना अधिक क्यों व्यापक बना, इस सम्बन्ध में हम पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं। शोधार्थियों को तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करना चाहिए और प्रमाण - पुरस्सर चिन्तन देना चाहिए, जिससे सत्य तथ्य समुद्घाटित हो सके । इस प्रकार भगवतीसूत्र में विविध व्यक्तियों के चरित्र आए हैं जो ज्ञातव्य हैं और जिनसे अन्य अनेक दार्शनिक गुत्थियों को भी सुलझाया गया है। विविध: सैद्धान्तिक चिन्तन हम अब भगवतीसूत्र में आए हुए सैद्धांतिक विषयों पर चिंतन करेंगे, जो जैनदर्शन का हृदय हैं। द्रव्य-गुण विचार भगवतीसूत्र शतक २५, उद्देशक २ में द्रव्य विषयक चिन्तन है । यहाँ हमें सर्वप्रथम यह चिन्तन करना है कि द्रव्य किसे कहते हैं ? सूत्रकृताङ्ग २८७ चूर्णि में आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने द्रव्य की परिभाषा करते हुए लिखा हैजो विशेष - पर्यायों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है। अन्य जैनाचार्यों ने लिखा है-जो पर्यायों के लय और विलय से जाना जाता है वह द्रव्य है | २८८ दूसरे आचार्य ने लिखा है जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ, हो रहा है और होगा वह द्रव्य है । वह विभिन्न अवस्थाओं का उत्पाद और विनाश होने पर भी सदा ध्रुव रहता है। क्योंकि ध्रौव्य के अभाव में पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं का सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती दोनों अवस्थाओं में जो व्याप्त रहता है वह द्रव्य है। जो द्रव्य है वह सत् है। आचार्य उमास्वाति ने सत् को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त२८९ माना है। उन्होंने द्रव्य की परिभाषा करते हुए गुण और पर्याय वाले को द्रव्य कहा है । २९० द्रव्य में परिणमन होता है। उत्पाद और व्यय होने पर भी उसका मूल स्वरूप नष्ट नहीं होता । द्रव्य के प्रत्येक अंश में प्रतिपल प्रतिक्षण जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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