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________________ ९८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन निमित्त-संभाषण २. तप की साधना, ३. शिथिल आचारसंहिता; जबकि महावीर२७३ और बुद्धर७४ के संघ में निमित्त भाषण वर्ण्य रहा और भगवान् महावीर की तो आचारसंहिता भी कठोर रही। भगवती के अतिरिक्त आवश्यकनियुक्ति,२७५ आवश्यकचूर्णि. २७६ आवश्यक मलयगिरिवृत्ति,२७७ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित ,२७८ महावीरचरियर७९ प्रभृति ग्रन्थों में गोशालक के जीवन के अन्य अनेक प्रसंग हैं। पर विस्तारभय से हम उन प्रसंगों को यहाँ नहीं दे रहे हैं। दिगम्बराचार्य देवसेन ने भावसंग्रह ग्रन्थ में गोशालक का परिचय कुछ अन्य रूप से दिया है। उनके अभिमतानुसार गोशालक भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के एक श्रमण थे। वे महावीर-परम्परा में आकर गणधर पद प्राप्त करना चाहते थे पर जब उनकी गणधर पद पर नियुक्ति नहीं हुई तो वे श्रावस्ती में पहुँचे और आजीवक सम्प्रदाय के नेता व अपने-आपको तीर्थङ्कर उद्घोषित करने लगे। वे इस प्रकार उपदेश देने लगे-ज्ञान से मोक्ष नहीं होता, अज्ञान से ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई नहीं है। अतः अपनी इच्छा के अनुसार शून्य का ध्यान करना चाहिए ।२८० त्रिपिटक साहित्य में भी आजीवक संघ और गोशालक का वर्णन प्राप्त है। तथागत बुद्ध के समय जितने मत और मतप्रवर्तक थे, उन सभी मतों एवं मत-प्रवर्तकों में से गोशालक को तथागत बुद्ध सबसे अधिक निकृष्ट मानते थे। तथागत बुद्ध ने सत्पुरुष और असत्पुरुष का वर्णन करते हुए कहा-कोई व्यक्ति ऐसा होता है जो बहुत जनों के अलाभ के लिए होता है। बहुत जनों की हानि के लिए होता है। बहुत जनों के दुःख के लिए होता है। वह देवों के लिए भी अलाभकर और हानिकारक है, जैसे मंखलि-गोशालक।२८१ दूसरे स्थान पर उन्होंने यह भी बताया कि श्रमण धर्मों में सबसे निकृष्ट और जघन्य मान्यता गोशालक की है, जैसे कि सभी प्रकार के वस्त्रों में 'केशकम्बल'२८२ । यह कम्बल शीतकाल में शीतल, ग्रीष्मकाल में उष्ण तथा दुर्वर्ण, दुर्गन्ध, दुःस्पर्श वाला होता है। वैसे ही जीवनव्यवहार में निरुपयोगी गोशालक का नियतिवाद है।२८३ इन अवतरणों से यह स्पष्ट है कि गोशालक और उसके मत के प्रति बुद्ध का विद्रोह स्पष्ट था। सूत्रकृताङ्क में आर्द्रकुमार का प्रकरण आया है। उस . प्रकरण में आर्द्रकुमार ने आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्मसेवन का उल्लेख किया है। इसी प्रकार मज्झिमनिकाय२८४ आदि में भी आजीवकों के अब्रह्मसेवन का वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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