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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन ९७ लिखा है तो त्रिपिटक साहित्य में आजीवक लिखा है। आजीविक तथा आजीवक इन दोनों शब्दों का अभिप्राय है आजीविका के लिए तपश्चर्या आदि करने वाला। गोशालक मत की दृष्टि से इस शब्द का क्या अर्थ उस समय व्यवहृत था, उसको जानने के लिए हमारे पास कोई ग्रन्थ नहीं है। जैन और बौद्ध साहित्य की दृष्टि से गोशालक के भिक्षाचरी आदि के नियम कठोर थे।२६८ जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों के आधार से यह सिद्ध है कि गोशालक नग्न रहता था तथा उसकी भिक्षाचरी कठिन थी। आजीविक परम्परा के साधु कुछ एक दो घरों के अन्तर से, कुछ एक तीन घरों के अन्तर से यावत् सात घरों के अन्तर से भिक्षा ग्रहण करते थे |२६९ भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक ५ में आजीविक उपासकों के आचार-विचार का वर्णन इस प्रकार प्राप्त है-वे गोशालक को अरिहन्त मानते हैं। माता-पिता की शुश्रूषा करते हैं। गूलर, बड, बौर, अञ्जीर, पिलंखु इन पांच प्रकार के फलों का भक्षण नहीं करते। प्याज, लहसुन आदि कन्दमूल का भक्षण नहीं करते। बैलों को निःलंछण नहीं कराते। उनके नाक, कान का छेदन नहीं कराते। वे त्रस प्राणियों की हिंसा हो, ऐसा व्यापार भी नहीं करते। ___ गोशालक के सम्बन्ध में पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों ने शोध प्रारम्भ की है। कुछ विज्ञ शोध के नाम पर नवीन स्थापना करना चाहते हैं पर प्राचीन साक्षियों को भूलकर नूतन कल्पना करना अनुचित हैं। कितने ही विद्वान् गोशालक सम्बन्धी इतिहास को सर्वथा परिवर्तित करना चाहते हैं। डॉ. वेणीमाधव बरुआ ने इसी प्रकार का प्रयास किया है,२७० जो उचित नहीं है। 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ में मुनि श्री नगराजजी डी. लिट् ने इस संबंध में विस्तार से ऊहापोह किया है। जिज्ञासु पाठक उस ग्रन्थ का अवलोकन कर सकते हैं।२७१ ___ यह सत्य है कि गोशालक अपने युग का एक ख्यातिप्राप्त धर्मनायक था। उसका संघ भगवान् महावीर के संघ से बड़ा था। भगवान् महावीर के श्रावकों की संख्या १५९000 थी तो गोशालक के श्रावकों की संख्या ११६१000 थी जो उसके प्रभाव को भी व्यक्त करती है। यही कारण है कि तथागत बुद्ध ने गोशालक के लिए कहा कि वह मछलियों की तरह लोगों को अपने जाल में फँसाता है ।२७२ इसके तीन मूल कारण थे। १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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