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१00 भगवती सूत्र : एक परिशीलन परिवर्तन होता है वह पूर्व रूप से विलक्षण नहीं होता-परिवर्तन में कुछ समानता रहती है तो कुछ असमानता भी हो जाती है। पूर्व परिणाम और उत्तर परिणाम में जो समानता है वह द्रव्य है। इस दृष्टि से द्रव्य न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। वह अनुस्यूत रूप ही वस्तु की हर एक अवस्था को प्रभावित करता है। उदाहरण के रूप में माला के प्रत्येक मोती में धागा अनुस्यूत रहता है। पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती परिणमन में जो असमानता है वह पर्याय कही जाती है। इस दृष्टि से द्रव्य की उत्पत्ति भी मानी जाती है तथा विनाश भी। इस कारण द्रव्य में उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता-इन तीनों अवस्थाओं का उल्लेख है। द्रव्य रूप में वह स्थिर है तो पर्याय रूप में उत्पन्न एवं नष्ट भी होता रहता है। सारांश यह है कि कोई भी वस्तु न सर्वथा नित्य है, न सर्वथा अनित्य है किन्तु वह परिणामी नित्य है।
आगम के शब्दों में कहा जाय तो जो गुण का आश्रय या अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड है वह द्रव्य है। इसमें प्रथम परिभाषा द्रव्य का स्वरूपात्मक रूप प्रस्तुत करती है तो दूसरी परिभाषा अवस्थात्मक रूप को व्यक्त करती है। दोनों में समन्वय होने से द्रव्य-गुण-पर्यायवत् कहा जाता है तथा उसका परिणामी नित्यस्वरूप बतलाता है। द्रव्य में सहभावी (गुण) और क्रमभावी (पर्याय) ये दो प्रकार के धर्म होते हैं। बौद्धदर्शन ने सत्-द्रव्य को एकान्त अनित्य माना है अर्थात् निरन्वय क्षणिक, केवल उत्पाद-विनाशस्वभाव वाला माना है तो वेदान्तदर्शन ने सत् पदार्थ (ब्रह्म) को एकान्त नित्य माना है। बौद्धदर्शन परिवर्तनवादी है तो वेदान्तदर्शन नित्य सत्तावादी। पर जैनदर्शन ने इन दोनों दर्शनों की विचारधारा को समन्वय की तुला पर तोल कर परिणामी नित्यत्ववाद की संस्थापना की है। इसका तात्पर्य है कि द्रव्य की सत्ता है, परिवर्तन भी है, द्रव्य उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी और इस परिवर्तन में उसका अस्तित्व भी सदा सुरक्षित रहता है। उत्पाद और विनाश के मध्य कोई स्थिर आधार नहीं हो तो सजातीयता का अनुभव नहीं हो सकता। 'यह वह ही है' ऐसा नहीं कहा जा सकता। यदि हम द्रव्य को निर्विकार मानें तो विश्व में जो विविधता है, उसकी संगति नहीं हो सकती।
परिणामीनित्यत्ववाद जैनदर्शन की अपनी मौलिक देन है। इसकी तुलना रासायनिक विज्ञान के द्रव्याक्षरत्ववाद से कर सकते हैं। इस वाद की संस्थापना सन् १७८९ में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक 'लेवोसियर' ने की थी। इस वाद का सार है-इस अनन्त विश्व में द्रव्य का परिमाण सदा सर्वदा समान
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