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पाप और उसका फल
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भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देशक १0 में कालोदाई अन्यतीर्थिक ने गणधर गौतम से जिज्ञासा व्यक्त की थी। वही कालोदाई जब भगवान के समोसरण में पहुंचा तो भगवान महावीर ने पञ्चास्तिकाय का विस्तार से निरूपण कर उसके संशय को नष्ट किया। कालोदाई, स्कन्धक की भाँति श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रव्रजित होते हैं। ग्यारह अंगों का अध्ययन कर जीवन की सांध्यवेला में संथारा कर मुक्त होते हैं।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कालोदाई ने भगवान महावीर से यह भी जिज्ञासा प्रस्तुत की थी पाप कर्म अशुभ फल वाला क्यों है ? भगवान महावीर ने समाधान दिया था कि कोई व्यक्ति सुन्दर सुसज्जित थाली में १८ प्रकार के शाक आदि से युक्त विष-मिश्रित भोजन करता है। वह विष-मिश्रित भोजन प्रारम्भ में सुस्वादु होने के कारण अच्छा लगता है पर उसका परिणाम ठीक नहीं होता। वैसे ही पाप कर्म का प्रारम्भ अच्छा लगता है परन्तु उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। दूसरा व्यक्ति विविध प्रकार की
औषधियों से युक्त भोजन करता है। औषधियों के कारण वह भोजन कटु होता है पर वह भोजन स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है। वैसे ही शुभ कर्म प्रारम्भ में कठिन होते हैं पर उनका फल श्रेयस्कर होता है। इस प्रकार इस कथानक में जीवन के लिए चिन्तनीय सामग्री प्रस्तुत की गई है।
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