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८८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन आवश्यकता है। यह सत्य है कि लोक है, क्योंकि वह ज्ञानगोचर है। पर अलोक इन्द्रियातीत है। यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि अलोक है या नहीं ? पर जब हम लोक का अस्तित्व स्वीकार करते हैं तो सहज ही अलोक का अस्तित्व भी स्वीकार हो जाता है। जिसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव, पुद्गल आदि सभी द्रव्य होते हैं, वह लोक है। इसके विपरीत अलोक में केवल आकाश द्रव्य ही है। धर्म और अधर्म द्रव्य के अभाव में अलोक में जीव और पुद्गल भी नहीं है। काल की तो वहाँ अवस्थिति है ही नहीं।
प्रस्तुत प्रसंग से यह सहज परिज्ञात होता है कि महावीर युग में भगवान् महावीर के श्रमणोपासक तत्त्वविद् थे। वे अन्य तीर्थकों को जैन दर्शन के गुरु-गम्भीर रहस्यों को समझाने में समर्थ थे। आज भी आवश्यकता है कि श्रमणोपासक श्रावक तत्त्वविद् बनें। जैनदर्शन के गम्भीर रहस्यों का अध्ययन कर स्वयं के जीवन को महान् बनाएँ तथा अन्य दार्शनिकों को भी जैनदर्शन का सही एवं विशुद्ध रूप बतायें।
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