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सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ...
इसप्रकार मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के अभिप्राय का अन्तर अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। अज्ञानी के अभिप्राय में मूल में भूल यही है कि उसके परिणाम संसार से उदासीनरूप होते हैं, फिर भी अभिप्राय में द्वेष होने से उसकी उदासीनता भी द्वेषरूप होती है।
द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि के अभिप्राय की भूल का विस्तृत स्पष्टीकरण मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 243 से 249 तक किया गया है, जिसका सार यहाँ दिया जा रहा है :
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(1) पहले स्वयं को शरीराश्रित पाप कार्यों का कर्ता मानता था । जैसे- 'मैं जीवों को मारता हूँ, परिग्रहधारी हूँ' - ऐसा मानता था और अब अपने को शरीराश्रित पुण्य कार्यों का कर्ता मानने लगा अर्थात् 'मैं जीवों की रक्षा करता हूँ, मैं नग्न हूँ - ऐसा मानता है । वस्तुतः अपने को शरीराश्रित पाप-पुण्य क्रियाओं का कर्ता मानना मिथ्यात्व है।
(2) मुनिधर्म की क्रियाओं में प्रवृत्ति के भाव रागरूप हैं और वह इस शुभराग को मोक्षमार्ग मानता है; जबकि मोक्षमार्ग तो वीतरागभावरूप है। रागभाव को मोक्षमार्ग मानना मिथ्यात्व है। शुभराग, चारित्र का स्वरूप नहीं है, अपितु चारित्र का दोष है, तथ उसे धर्म मानना श्रद्धा का दोष है।
(3) निर्ग्रन्थ दशा अंगीकार करने पर भी, उग्र तप करने पर भी, बाईस परिषह सहने पर भी शास्त्रों में उसे मिथ्यादृष्टि और असंयमी कहा गया है; क्योंकि उसे तत्त्वों का सच्चा श्रद्धान - ज्ञान नहीं हुआ है। मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 225 से 238 तक सम्यग्दर्शन का अन्यथारूप प्रकरण के अन्तर्गत सात तत्त्व सम्बन्धी भूलों का जैसा वर्णन किया गया है, वैसी ही विपरीतता उसके श्रद्धान-ज्ञान में पाई जाती है। इसी विपरीत अभिप्राय पूर्वक वह धर्मसाधन करता है, इन साधनों के अभिप्राय की परम्परा का विचार करने पर कषायों का अभिप्राय आता है।
धर्म-साधनों की परम्परा में कषाय का अभिप्राय :- अज्ञानी के धर्म-साधनों की परम्परा में कषायों का अभिप्राय किसप्रकार आता है -
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