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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन इसका स्पष्टीकरण निम्नानुसार है :
(अ) शुभराग में उपादेय बुद्धि :- वह अशुभराग को हेय जानकर छोड़ता है और शुभराग को उपादेय मानकर उसकी वृद्धि का उपाय करता है। शुभराग भी कषाय है, अतः उसने कषाय को उपादेय माना, इसलिए उसे कषाय करने का ही श्रद्धान रहा। अशुभ-निमित्त से द्वेष करने का तथा शुभ-निमित्तों से राग करने का अभिप्राय रहा; परद्रव्यों में साम्यभावरूप अभिप्राय नहीं रहा।
(ब) उपसर्ग-परीषह सहन करने में भय और लोभ :- उपसर्ग और परीषह सहने में तथा तप करने में दुःख का वेदन करता है; परन्तु दुःख का वेदन करना भी कषाय है। वह कषाय के अभिप्रायरूप विचार से दुःख सहता है। ये विचार निम्नानुसार होते है :
"....हे जीव ! तूने नरकादि गति में पराधीनता से बहुत दुःख सहन किये, यह परीषहादिक का दुःख तो बहुत थोड़ा है। इसको स्वाधीन होकर सहने से स्वर्ग-मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। यदि यह दुःख न सहेगा और विषय-सुख का सेवन करेगा तो तुझे नरकादिक की प्राप्ति होगी, वहाँ बहुत दुःख होगा।"
उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि वह परिषहों को दुःखदायक मानता है। मात्र नरकादिक के भय तथा स्वर्ग-सुख के लोभ से उन्हें सहन करता है। ये भय और लोभ भी कषाय ही हैं।
उक्त विचारों के साथ-साथ उसके निम्न विचार भी होते हैं :
“.... मैंने पूर्व में जो कर्म बाँधे थे, वे भोगे बिना नहीं छूट सकते; अतः मुझे उन्हीं का फल भोगना पड़ रहा है। देखो ! कर्मो ने तो आदिनाथ और पार्श्वनाथ जैसे तीर्थंकरों को भी नहीं छोड़ा। उन्हें भी कर्मों का फल भोगना ही पड़ा। अतः मुझे भी समताभाव पूर्वक कर्मों का फल भोग लेना चाहिए।"
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