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सम्यक् चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ...
उत्तर :- ज्ञायकभाव तो प्रमत्त- अप्रमत्त के भेद से रहित सहज ज्ञायक ही है, उसमें तो बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का भी भेद नहीं है; तो 'मैं मिथ्यादृष्टि हूँ, मुझे सम्यग्दर्शन प्रगट करना है' - ऐसे विकल्प ज्ञायक की मुख्यता वाली दृष्टि में कैसे हो सकते हैं ? ऐसे विकल्प तो परिणामों की मुख्यता में ही सम्भव हैं। यदि अभिप्राय में परिणामों की मुख्यता रही तो ज्ञायक की मुख्यता छूट जाएगी और मिथ्यात्व का ही पोषण होगा। ज्ञायक की मुख्यतावाली दृष्टि का स्वर तो ऐसा होता है कि 'परिणाम परिणम गया और मैं यूँ का यूँ रह गया ।' पूज्य गुरुदेव श्री का यह वाक्य प्रसिद्ध है 'द्रव्यदृष्टि ते ज सम्यग्दृष्टि' अर्थात् द्रव्यदृष्टिवन्त जीव ही सम्यग्दृष्टि हैं ।
सहज
इस प्रकार दृष्टिप्रधान विचारों के निमित्त से ज्ञायक सम्बन्धी विचार विकल्प भी छूट जाते हैं और दृष्टि, स्वभाव में जम जाती है, निर्विकल्प दशा हो जाती है, मिथ्या अभिप्राय पलटकर सम्यक् हो जाता है, परिणामों में वीतरागता का अंश प्रगट हो जाता है और क्रिया भी भूमिकानुसार परिणामों के अनुकूल सहज हो जाती है।
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प्रश्न :- यदि दृष्टि में परिणामों की मुख्यता से मिथ्यात्व होता है, तो जिनागम में अधिकाँश कथन परिणामों की मुख्यता से क्यों किए गए हैं ?
उत्तर :- अरे भाई ! परिणाम भी तो वस्तु का स्वरूप हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में औदयिक आदि पाँचों भावों को जीव का स्वतत्त्व कहा गया है। इसलिए परिणामों को जानने का निषेध कैसे किया जा सकता है ? यदि जानने की अपेक्षा भी उनका निषेध करेंगे तो हेय उपादेय का ज्ञान कैसे होगा ? अतः परिणामों का सर्वथा निषेध करना तो मिथ्या एकान्त है ।
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क्या करना है ? इसका उत्तर परिणामों को यथार्थ जानने से मिलता है और कैसे करना है ? इसका उत्तर द्रव्य-स्वभाव को जानकर उस पर दृष्टि करने से मिलता है। अतः परिणामों का निषेध, सर्वथा नहीं अपितु
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