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. क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन कथञ्चित् अर्थात् दृष्टि की अपेक्षा किया गया है, और इस अपेक्षा से किया भी जाना चाहिए; क्योंकि जब तक परिणामों पर दृष्टि रहेगी; अर्थात् उनमें अहंपना रहेगा, तब तक त्रिकाली स्वभाव पर दृष्टि नहीं जाएगी और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र नहीं होगा। दृष्टि में परिणामों का निषेध होना सम्यक् एकान्त है तथा ज्ञान में भी परिणामों का निषेध होना मिथ्या एकान्त है। त्रिकाली स्वभाव एवं परिणामों का यथार्थ ज्ञान सम्यक् अनेकान्त है तथा इन दोनों को समानरूप से उपादेय मानना मिथ्या अनेकान्त है।
जिनागम में आत्महित के प्रयोजन से पुण्य-पापरूपभावों का तथा उनके फल का बहुत वर्णन है। इतना ही नहीं बल्कि परिणामों का उपचार क्रिया पर करके क्रिया की भाषा में भी बहुत उपदेश दिया गया है। सारा चरणानुयोग और प्रथमानुयोग इसी शैली से लिखा गया है तथा द्रव्यानुयोग में परिणामों में एकत्व और कर्तृत्त्वबुद्धि छुड़ाकर द्रव्यदृष्टि कराने के प्रयोजन से पर्यायों से भिन्न त्रिकाली ज्ञायकभाव का वर्णन किया गया है।
प्रश्न :- करणानुयोग में वर्णित कर्मप्रकृतियों तथा भूगोल आदि के वर्णन से आत्महित के प्रयोजन की सिद्धि कैसे होती है ?
उत्तर :- यदि हमें स्वर्ग-नरक तीन लोक आदि का सामान्य ज्ञान भी नहीं होगा, तो पुण्य-पाप का यथार्थ ज्ञान भी नहीं हो सकेगा; क्योंकि पुण्यपाप का फल भोगने के स्थान ये ही हैं। यदि पुण्य-पाप का फल सिद्ध न हो तो जीव का संसार-भ्रमण, जन्म-मरण आदि भी सिद्ध न होंगे। फिर पर्यायों से दृष्टि हटाकर द्रव्यदृष्टि करने की क्या आवश्यकता रह जाएगी ? इसी प्रकार कर्मप्रकृतियों की भाषा में जीव के विकारीभावों तथा बाह्य संयोगवियोग की व्यवस्था का वर्णन किया जाता है। अतः करणानुयोग भी आत्महित के प्रयोजन की सिद्धि में सहायक है।
इन विषयों की गहराई और सूक्ष्मता से समझने से सर्वज्ञता और सर्वज्ञ स्वभावी भगवान आत्मा की महिमा आती है। अतः दृष्टि को स्वभाव सन्मुख होने का बल मिलता है।
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