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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन क्योंकि ज्ञायकस्वभाव ही दृष्टि का विषय है। अतः शास्त्रों के प्रत्येक प्रकरण का ज्ञान, मात्र जानने के प्रयोजन से नहीं, अपितु स्वभाव की रुचि के पोषण के प्रयोजन से करना चाहए। सदैव 'मैं ज्ञायक हूँ यही रुचि पुष्ट होना चाहिए। हमारी चिन्तनधारा ही दृष्टिप्रधान हो जाना चाहिए। अरे .......पर के कर्त्तत्त्व और भोक्तृत्व की बात तो दूर, पर्यायों के कर्त्तत्त्व का रस भी ढीला पड़ कर नष्ट हो जाना चाहिए। मैं अज्ञानी हूँ, मुझे सम्यग्दर्शन प्रगट करना है, राग का अभाव करना है' – ऐसे विकल्प भी पर्याय की मुख्यता से होते हैं, अतः ज्ञान में इन्हें गौण करके दृष्टि में इनका निषेध वर्तना चाहिए।
प्रश्न :- 'मुझे सम्यग्दर्शन प्रगट करना है' - ऐसे विकल्प तो आत्मार्थी को होते ही हैं। पण्डित द्यानतरायजी ने भी लिखा है - ‘धिक-धिक जीवन समकित बिना।' अतः ऐसे विकल्पों का निषेध कैसे किया जा सकता है ? क्या इससे स्वच्छन्दता नहीं आएगी?
उत्तर :- भाई ! ऐसे विकल्प परिणाम(पर्याय) की अपेक्षा हैं, जबकि यहाँ अभिप्राय अर्थात् श्रद्धा या दृष्टि के विषय की बात चल रही है। इसलिए तो कहा था कि नय-विवक्षा समझते हुए शास्त्राभ्यास करना चाहिए। जो बात या विचार परिणामों की अपेक्षा यथार्थ हैं, प्रशंसनीय हैं, वही बात या विचार अभिप्राय की अपेक्षा निषिद्ध हैं; क्योंकि यदि उन्हें अभिप्राय की अपेक्षा भी यथार्थ मान लिया जाए तो ज्ञायकस्वभाव की मुख्यता छूट जाने से मिथ्यात्व का ही पोषण होगा। ज्ञायक की मुख्यता में परिणामों का निषेध होने से स्वच्छन्दता नहीं, सम्यग्दर्शन होता है।
प्रश्न :- 'मुझे सम्यग्दर्शन प्रगट करना है, मुनि बनकर केवलज्ञान प्रगट करना है' इत्यादि विकल्परूप अभिप्राय में ज्ञायक की मुख्यता कैसे छूट जाएगी ? श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी 'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे' ? लिखकर मुनि बनने की तथा सर्वज्ञ होने की भावना भाई है ?
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