________________
ती
चक्षुष्मान् !
बाहर देखो और भीतर देखो। देखने के ये दो रूप उलझन पैदा करते हैं । उलझन इसलिए है कि दोनों के बीच जो परदा है, उसे जानते नहीं । दरवाजा है और उस पर परदा है। दो कक्ष सहज बन जाएंगे-भीतरी कक्ष और बाहरी कक्ष ।
दर्शन केन्द्र को जागृत करने का अभ्यास करो। यह जैसे-जैसे जागृत होगा, वैसे-वैसे परदे का बोध स्पष्ट होगा। एक दिन वह हट भी जाएगा, बाहर और भीतर की दूरी नहीं रहेगी।
तीसरा नेत्र, इस पद से तुम अपरिचित नहीं हो। इसकी आज पश्चिमी जगत् में बहुत चर्चा है । चर्चा से परे जो अचर्चित सत्य है, वह यह है कि दर्शन केन्द्र का स्थान एक बहुत बड़ी खिड़की है। वहां से बहुत कुछ देखा जा सकता है। वह मिलन-बिन्दु है प्राणधाराओं का।
आत्मा का शरीर के साथ मिलन कहां होता है ? उन मिलनबिंदुओं की खोज काफी समय से होती रही है । नाभि (तेजस केन्द्र), भृकुटि (दर्शन केंद्र) और मस्तिष्क का ऊर्ध्व भाग (ज्ञान-केन्द्र)-ये आत्मा और शरीर के संगम-बिंदु माने जाते हैं।
चैतन्य विकास की दृष्टि से मस्तिष्क के बाद दर्शन केन्द्र का बहुत अधिक महत्त्व है।
तुम्हारा दृष्टिकोण सम्यग् बने । उसमें विधायक भाव की प्रधानता हो । तुम गहरी एकाग्रता के साथ दर्शन केन्द्र की उपासना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org