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चक्षुष्मान् !
_ तुम अंतर्मुख होना चाहते हो। बहिर्मुखता का जीवन बहुत जिया है । गहरे में उतरकर उसका अनुभव किया है । अब तुम्हारे मन में एक नई ललक पैदा हुई है। अपने भीतर में झांकू, इस भावना ने तुम्हें अंतर्मुखता की ओर उत्प्रेरित किया है।
तुम जानना चाहते हो-भीतर जाने का प्रवेश-द्वार कौन-सा है । त्वचा है भीतर जाने का द्वार । रोमकूपों से प्राणवायु का संग्रहण होता है और वह भीतर चली जाती है। दोनों नथुनों से श्वास भीतर जाता है। मुंह से भोजन और पानी का भीतर प्रवेश होता
- हमारे शरीर में भीतर जाने के अनेक प्रवेश-द्वार हैं । अंतर्मुखता का सम्बन्ध इनके साथ नहीं है। उसका सम्बन्ध है चेतना के साथ । हमारी चेतना भीतर ही है फिर उसे भीतर जाने के लिए प्रवेश-द्वार खोजने की क्या आवश्यकता है ? यह एक पहेली है। इस पहेली को बुझाना है।
हमारी चेतना बाह्य जगत् के पदार्थों से जुड़ी हुई है, उसमें आसक्त है इसलिए वह बार-बार बाहर की ओर दौड़ती है। उसका आकर्षण है बाहर के प्रति । भीतर रहना या अपने स्थान में रहना उसे पसन्द नहीं है। इस स्थिति को बदलने, पदार्थ के प्रति मूर्छा या आसक्ति को कम करने का अर्थ है--चेतना का भीतर में प्रवेश । इसका माध्यम है-अंतर्यात्रा का प्रयोग ।
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