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चक्षुष्मान् !
शरार का स्थिरता और शिथिलता बहुत आवश्यक है । इससे भी अधिक आवश्यक है शरीर की मूर्च्छा का त्याग । कायोत्सर्ग को शवासन मत बनाओ। केवल स्थिरता और शिथिलता तक मत रुको। कायोत्सर्ग का प्राण-तत्त्व है - शरीर की मूर्च्छा से मुक्ति, देहाध्यास या देहासक्ति का विसर्जन |
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प्रेक्षाध्यान शरीर और मन के घेरे में नहीं है । वह उनसे परे जने की पद्धति है, आत्मा तक पहुंचने की पद्धति है । शरीर - मूर्च्छा की स्थिति में आत्मा तक पहुंचने का दरवाजा खुलता नहीं
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तुम कायोत्सर्ग का सही-सही मूल्यांकन करो । शरीर से सेवा लो और उसे सेवा दो, पर ममत्व से संधि मत करो । यही है कायोत्सर्ग का मर्म । इसे केवल शरीर की साधना मत बनाओ; विश्राम, स्वास्थ्य और चिकित्सा की सीमा में मत बांधो। यदि ऐसा करोगे तो मूल लक्ष्य छूट जाएगा । तुम्हारा मूल लक्ष्य है— आत्मा का साक्षात्कार करना । वह तभी सम्भव होगा जब दैहिक मूर्च्छा का बंधन टूटेगा । कायोत्सर्ग की मुद्रा में अन्यत्व - अनुप्रेक्षा का प्रयोग करो । शरीर से आत्मा की भिन्नता का बोध करो, अनुभव करो । 'आत्मा भिन्न है', 'आत्मा चेतन है, शरीर अचेतन है', इस शब्दावली को पांच या दस मिनट तक दोहराओ । दोहराते समय ध्यान उसके साथ जुड़ा रहे । दोहराते - दोहराते शब्द कम हो जाएं - शब्दों के उच्चारण में अन्तराल आ जाए, भावधारा प्रखर बन जाए, शब्द अनुभूति के स्तर
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