________________
व्यवस्था
व्यवस्था सत्यमाप्नोति, सत्यं शिवत्वमश्नुते।
शिवं यत्र भवेत् तत्र, सौन्दर्यं सहजं भवेत्॥ व्यवस्था सत्य को प्राप्त करती है, सत्य शिव को। जहां शिव (कल्याण) होता है, वहां सौन्दर्य सहज घटित हो जाता है। पंचसूत्रम् का यह श्लोक व्यवस्था की फलश्रुति उजागर करता है। तेरापंथ का सौन्दर्य इसकी सुन्दरतम व्यवस्था के कारण निखरा है। एक गुरु और एक विधान आज तेरापंथ की पहचान बन चुका है। आचार्य के निर्देशन में सैकड़ो-सैकड़ों साधु-साध्वियां अपनी साधना निर्बाध रूप से कर रही हैं। पारिवारिक, सामाजिक या आध्यात्मिक-कैसा भी जीवन क्यों न हो, विकास के लिए व्यवस्था पक्ष की सुघड़ता जरूरी है।
समणश्रेणी की स्थापना तथा संख्यावृद्धि के साथ इसकी व्यवस्था को सुचिंतित आकर दिया गया। इस श्रेणी की व्यवस्था दो भागों में विभक्त है-१. सम्पूर्ण व्यवस्था। २. वर्ग व्यवस्था। सम्पूर्ण व्यवस्था की मुखिया नियोजिका कहलाती है और वर्ग की मुखिया निर्देशिका। ये दो व्यवस्थाएं परिवर्तनशील हैं। इस बदलती व्यवस्था में किसी भी योग्य समणी का नियोजिका पद के लिए चयन किया जा सकता है। पद-मुक्ति के पश्चात् वह एक सामान्य समणी के रूप में साधना करती है। यही बात निर्देशिका के लिए भी है। आज जो समणी निर्देशिका के रूप में अन्य तीन समणी का निर्देशन करती है कार्यकाल मुक्ति के बाद किसी अन्य समणी के निर्देशन में उतनी ही प्रसन्नता के साथ अपनी साधना गतिशील रखती है। समभाव की यह विलक्षण व्यवस्था है।
इस परिवर्तनशील व्यवस्था के दो लाभ सामने आते हैं१. पद-प्रतिष्ठा के प्रति अंहकार का न जागना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org