________________
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
धर्मचक्र-मंदिरों में, वेदी पर, तीर्थंकर के सिंहासन पर धर्मचक्र उत्कीर्ण किया जाता है। कहीं-कहीं स्वतन्त्ररूप से भी धर्मचक्र की रचना मिलती है। पाषाण स्तंभों, द्वार के तोरण और चैत्यों पर भी धर्मचक्र अंकित मिलते हैं । विश्वमैत्री, अहिंसा और जगत्कल्याण के प्रतीक धर्मचक्र को तीर्थकरों की आध्यात्मिक विजय का प्रतीक माना गया है। धर्मचक्र संसार से पाप विजय और कषायों के विनाश के प्रतीक रूप तीर्थंकरों के आगे-आगे चलता है। इसका आशय और प्रयोजन यह है कि तीर्थकर का जहां जहां भी विचरण होता है वहां वहां तीर्थंकर के पहुंचने से पूर्व ही ऐसा आध्यात्मिक वातावरण पैदा हो जाता है कि जिस से वहां के मनुष्यों, तीर्थचों के मनों से द्वेष, हिंसा, और अनाचार के भाव दूर होने लगते हैं । उन्हें अन्तर से शांति का अनुभव होने लगता है । धर्मचक्र १२,२४ अथवा १००० अरों वाला होता है ।
जैनधर्म का महत्व __मात्र प्राचीन होने से ही कोई धर्म श्रेष्ठ मान लिया जाए, ऐसा नहीं है किन्तु जिसके प्राचार (आचरण) विचार (सिद्धान्त) सदा-सर्वदा सर्व-प्राणि-हिताय हों वही श्रेष्ठ धर्म है । और ये सब लक्षण जैनधर्म में ही पाये जाते हैं जिस का श्रेय ऋषभदेव से वर्धमान तक अर्हतों को ही है।
अर्हत् महावीर का त्यागमय जीवन क्षत्रीयकुण्ड (बिहार) के महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के पुत्र राजकुमार वर्धमान-महावीर स्वभाव से ही वैराग्यशील एवं एकान्तप्रिय थे। उनके माता-पिता तथा सारा परिवार भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। उन्होंने माता-पिता के आग्रह से गृहवास स्वीकार किया। राजकुमारी यशोदा से विवाह भी किया उससे उनकी एक पुत्री थी जिसके दो नाम थे अणुज्जा और प्रियदर्शना । पुत्री का विवाह जमाली से हुआ था।
यहाँ पर इनका संक्षिप्त परिचय देते हैं
जब महाबीर २८ वर्ष के हुए और उनके माता-पिता का देहांत हो गया तब उनका मन दीक्षा लेने(साधु होने) के लिए उत्कण्ठित हो गया । परन्तु बड़े भाई नन्दिवर्धन तथा अन्य स्वजन वर्ग के अाग्रह में उन्होंने दो वर्षों के लिए और घर ठहरना स्वीकार कर लिया। किन्तु उसमें शर्त यह थी कि "आज से मेरे निमित्त कुछ भी आरम्भ-समारम्भ न करना होगा।" अब वर्धमान गृहस्थ वेष में रहते हुए भी त्यागी जीवन बिताने लगे । अपने लिए बने हुए भोजन, पेय तथा अन्य भोग सामग्री का बिलकुल उपयोग (इस्तेमाल) न करते हुए वे साधारण भोजनादि से अपना निर्वाह करने लगे। ब्रह्मचारियों के लिए वर्जित तैल-फुलैल, माल्य-विलेपन, और अन्य शृंगार साधनों को उन्होंने पहले ही छोड़ दिया था। गृहस्थ होकर भी वे सादगी और संयम के आदर्श बने हुए शांतिमय और त्यागमय जीवन बिताते थे।
___ भगवान महावीर स्वामी ने तीस वर्ष की आयु में सुख-वैभव तथा गृहस्थाश्रम का त्याग कर एकाकी 'जिन दीक्षा' ग्रहण की। आपने सब प्रकार के परिग्रह का सर्वथा त्याग किया। वस्त्र, पात्र अलंकार आदि सब का त्याग कर साढ़े बारह वर्ष (१२ वर्ष, ६ महीने, १५ दिन) तक घोर तप किया। इतने समय में आपने केवल ३४६ दिन आहार किया, वह भी दिन में मात्र एक ही बार । इतना समय तप करने के बाद छद्मस्थावस्था को दूर कर केवलज्ञान--केवलदर्शन को प्राप्त किया। इस साधनावस्था में प्रभु महावीर ने बड़े-बड़े घोर परिषह और उपसर्गों को सहन किया था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org