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जैनधर्म की सर्वव्यापकता (तिलोय पण्णत्ति महाधिकार ४,१३८४)
१७-नवग्रह-रवि, चन्द्र, मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू, केतु, । इनका अंकन द्वारों, तीर्थकर मूर्तियों, देव-देवियों की मूर्तियों के साथ भी हुआ है और स्वतन्त्र भी हुआ है।
१८-मकरमुख-मंदिरों के द्वार, देह रियों के मध्य में तथा स्तंभों पर मिलते हैं ।
१६--शार्दूल-शार्दूल के पिछले पैरों के पास और अगले पैरों की लपेट में एक मनुष्य दिखलाई पड़ता है और शार्दूल की पीठ पर प्रायुध लिये हुए कोई मनुष्य बैठा रहता है।
२०-कीर्तिमुख-इस का अंकन प्रायः स्तम्भों, तोरणों और कोष्ठकों आदि में होता है । इस की मालाएं, लड़ियां और शृखलाएं लटकती दिखलाई पड़ती हैं।
२१-कोचक ---स्तम्भ के शीर्षों पर बैठा मनुष्य छन का भारवहन करता है। नं० २२ से ३६ तक के प्रतीक स्पष्ट है अतः उन की व्याख्या नहीं दी जाती।
तीर्थंकर और प्रतीक पूजा प्रतीक दो प्रकार के होते हैं -(१) अतदाकार तथा (२) तदाकार । ये दोनों तीर्थकारों की स्मृति का पुनर्नवीकरण करते है । और जनमानस में तीर्थंकरों के आदर्श की प्रेरणा जाग्रत करते हैं।
१. अतदाकार प्रतीक- (अ) इन में स्तूप, त्रिरत्न, चैत्यस्तम्भ, चैत्यवृक्ष ; पूर्णघट, श्रावसंपुट, पुष्प, पुष्पपड़लक आदि मुख्य हैं।
(प्रा) अष्टमंगल, तथा तीर्थंकरों के लांछन भी अतदाकार प्रतीकों में माने गये हैं। (इ) अष्टप्रातिहार्य और आयागपट्ट भी महत्वपूर्ण प्रतीक माने गये हैं। (ई) कला के प्रारंभिक काल में इन अतदाकार प्रतीकों का पर्याप्त प्रचलन रहा है। २-तदाकार प्रतीक----तीर्थंकरों की अनेक प्रकार की प्रतिमाए।
प्रागैतिहासिक काल से पूर्व के पाषाण युग में मोहन-जो-दड़ो आदि सिंधुघाटी से प्राप्त नग्न तथा अनग्न ध्यानस्थ प्रातिमाओं की प्राप्ति से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व तीन हजार वर्ष की तदाकार
प्रतिमाएं भी उपलब्ध हैं । इस से यह भी स्पष्ट हैं कि जैनों में जिनप्रतिमा पूजन की प्रथा अत्यन्त । प्राचीन काल से चली आ रही है।
____ मृण्मय मूर्तियाँ-हरप्पा, कौशांबी, मथुरा आदि के उत्खनन से बहुत संख्या में मिट्टी की । मूर्तियाँ भी मिलती हैं । इन के अधिक चिरस्थाई न रहने के कारण इन्हें अग्नि से पकाया जाने लगा । था। और इन का अधिक समय तक स्थायित्व न रहने के कारण पाषाणमय प्रतिमाएं भी बनने लगीं।
देवमूर्तियों का निर्माण सर्वप्रथम जैनों ने ही किया। तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त । आयागपट्ट, स्तूप, यक्ष-यक्षी, अजमुख, हरिनैगमैषी, सरस्वती, सर्वतोभद्र-प्रतिमा, मांगलिक चिन्ह, 1 धर्मचक्र, चैत्यवृक्ष आदि जैनकला की विविध प्राकृतियों का भी निर्माण हुआ।
तीर्थंकर प्रतिमाओं के आजू-बाजू खड़े दाता, उपासक, उनकी पत्नी, साधु और साध्वियों का । अंकन भी मिलता है।
मंदिरों का निर्माण --प्राचीनकाल के गुफामंदिर आज भी मिलते हैं । मथुरा आदि के है मंदिरों के खंडहर भी प्राचीन काल के उपलब्ध हैं।
अत्यन्त प्राचीनकाल में मूर्तियों पर प्रायः लांछन और लेख उत्कीर्ण करने की प्रथा नही थी।
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