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________________ ६८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म ४. स्वस्तिक-एक दूसरी को काटती हुई सीधी रेखाएँ जो सिरों से मुड़ी होती हैं । इसका प्रयोग स्वतन्त्र भी होता है और अष्टमंगल में भी होता है। ५. नन्द्यावत-- नन्द्य का अर्थ सुखद है या मांगलिक है और पावर्त का अर्थ घेरा है। इसका रूप स्वस्तिक जैसा होता है किन्तु इसके सिरे एकदम घुमावदार होते हैं जब कि स्वस्तिक का मोड़ सीधा होता है। ६. चैत्यस्तम्भ- एक चकोर स्तम्भ होता है जिसकी चारों दिशाओं में तीर्थंकर प्रतिमाएँ होती हैं और स्तम्भ के शिखर पर लधुशिखा होती है। ७. चैत्यवृक्ष- तीर्थंकर को जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान होता है वह चैत्यवृक्ष कहलाता है किन्तु कला में प्रायः अशोकवृक्ष का ही चैत्यवृक्ष के रूप में अंकन हुआ है । बहुधा वृक्ष के ऊपरी भाग में तीर्थंकर प्रतिमा का भी अंकन होता है। ८. श्रीवत्स--तीर्थंकर की छाती पर एक कमलाकार चिन्ह होता है । ६. सहस्र कूट--एक चकोर पाषाण स्तम्भ में १००८ तीर्थकर मूर्तियां अंकित होती हैं। १०. चैत्य-तीर्थंकर प्रतिमा या जिनमन्दिर । ११: सर्वतोभद्रिका ---- एक चकोर पाषाण स्तम्भ में चारों दिशाओं में एक-एक तीर्थंकर प्रतिमा होती है। ये चारों प्रतिमाएं एक ही तीर्थंकर की अथवा भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की होती है । कंकालीटीला मथुरा से ऐसी प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। इसमें १---- एक प्रतिमा के कन्धों तक केशों की जटाएँ लटक रही हैं यह प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव की है । २. दूसरी प्रतिमा के सिर पर सातमुखवाला सर्पफण है यह तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। : तीसरी प्रतिमा के चरणों के समीप एक स्त्री दो बच्चों के साथ बैठी है, यह श्री अंबिका देवी की मति है । यह देवी बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) की शासनदेवी है । अतः यह प्रतिमा श्री नेमिनाथ की है । ४. चौथी प्रतिमा के चरणों के नीचे के पादपीठ पर दो सिंहों की तथा दोनों सिंहों के मध्य में धर्मचक्र की आकृति है। अतः यह प्रतिमा चौवीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की है। ये चारों प्रतिमाएं खड़गासन में खड़ी और नग्न हैं । मथुरा के देवनिर्मित सुपार्श्वनाथ के स्तूप मन्दिर में श्वेतांबर प्राचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी। आजकल मथुरा तथा लखनऊ के पुरातत्त्व म्युजियमों में सुरिक्षित हैं। १२. त्रिरत्न--सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ये तीन रत्न कहे जाते हैं जिन्हें त्रिरत्न रत् त्रय भी कहते हैं । इनके प्रतीक रूप में एक फलक में एक ऊपर तथा दो नीचे छेद कर दिये जाते हैं। ऐसे प्रतीक मथुरा के कंकालीटीले से बहुत मिले हैं। मौर्यकाल के सिक्कों पर भी रत्नत्रय के चिन्ह मिले हैं। . १३. अष्टमंगल--स्वस्तिक, धर्मचक्र, नन्द्यावर्त, वर्धमानक्य. श्रीवत्स. मीन-युगल, पद्म और दर्पण अष्टमंगलिक कहलाते हैं। १४- अष्ट प्रातिहार्य-अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दुंदुभि,सिंहासन, दिव्यध्वनि, छत्र वय,चामर, और भामंडल ये तीर्थंकरों के आठ प्रातिहार्य होते हैं । तीर्थंकर की प्रतिमानों पर इन का अंकन मिलता है। १५ --चौदह स्वप्न-हाथी, बैल, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, कुंभ, पद्मसरोवर, क्षीरसमुद्र, देवविमान अथवा भवन, रत्नराशी, निर्धूम-अग्नि ये चौदह स्वप्न तीर्थंकर अथवा चक्रवर्ती की माता ऐसे पुत्र के गर्भ में आने पर देखती है। १६-नवनिधि—काल, महाकाल, पांडु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल, गानारत्न : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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