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जैनधर्म का महत्व
बड़ी शान्ति और धैर्य से महान कष्टों को सहन करके पूर्व-संचित कर्मों को भोग लिया, जिससे आपके सब घातिया कर्म क्षय हो गये । यदि प्रभु महावीर ऐसे उपसर्गों तथा परिषहों को शान्ति तथा धैर्य के साथ सहन न करते और कठोर तप न करते तो पूर्वोपार्जित पापकर्म क्षय न होते और न ही वे केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करते; तथा न ही अन्त में वे सर्व कर्मों को क्षय कर मोक्ष प्राप्त करते।
केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अरिहंत, जिन, केवली रूप हो गए। विश्व के सब चराचर पदार्थों का साक्षात्कार उन्हें इस प्रकार हो गया जैसे हाथों की अंगुलियाँ।
भगवान् महावीर को बौद्ध ग्रन्थों में निगण्ठ नाथपुत्त' के नाम से सम्बोधित किया है। बोद्धों के 'सुत्तपिटक' नामक ग्रन्थ से निर्ग्रन्थों (जैनों) के मत की काफी जानकारी मिलती है। इन्हीं के "मज्झिमनिकाय के चूल दुक्खक्खन्ध सुत्त" नामक ग्रन्थ में वर्णन है कि राजगह में निर्ग्रन्थ खड़े-खड़े तपश्चर्या करते थे । निगण्ठ नाथपुत्त (महावीर) सर्वज्ञ-सर्वदर्शी थे। चलते हुए या खड़े रहते हुए, सोते हुए या जागते हुए, हर स्थिति में उनकी ज्ञानदृष्टि कायम रहती थी।
भगवान् महावीर का आचार
भगवान् महावीर पांच महानत (चरित्र) धारी तथा रात्रि भोजन के सर्वथा त्यागी थे । इन व्रतों का स्वरूप जैन श्रमण के प्राचार में कहेंगे ।
भगवान महावीर दीक्षा (सन्यास) लेने के बाद एक वर्ष तक मात्र एक देवदूष्य वस्त्र सहित रहे, तत्पश्चात् सर्वथा नग्न रहते थे । हाथों की हथेलियों में भिक्षा ग्रहण करते थे। उनके लिए तैयार किए हुए अन्नादि आहार को वे स्वीकार नहीं करते थे और न ही किसी के निमन्त्रण को स्वीकार करते थे । मत्स्य, मांस, मदिरा, मादक पदार्थ, कन्द-मूल आदि अभक्ष्य वस्तुओं को कदापि ग्रहण नहीं करते थे । प्रायः तपस्या तथा ध्यान में ही रहते थे। छः छ: मास तक निर्जल उपवास (सब प्रकार की खाने पीने की वस्तुओं का त्याग) करते थे। सिर दाढ़ी मूंछ के बाल उखाड़ कर केशलोच करते थे। स्नानादि के सर्वथा त्यागी थे । छोटे से छोटे तथा बड़े से बड़े किसी भी प्राणी की हिंसा न हो जाय इसके लिए वे बहुत सतर्कता पूर्वक सावधानी रखते थे। वे बड़ी सावधानी से चलते-फिरते, उठते बैठते थे। पानी की बदों पर भी तीव्र दया रहती थी । सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जीव का भी नाश न हो जाय इसके लिए बहुत सावधानी रखते थे। भयावने जंगलों में, अटवियों आदि निर्जन जगहों में ध्यानारूढ़ रहते थे। वे स्थान इतने भयंकर होते थे कि यदि कोई सांसारिक मनुष्य वहां प्रवेश करता तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते । जाडों में हिमपात की भयानक सर्दी में भी अग्नि की प्रातापना नहीं लेते थे। सख्त गर्मी के मौसम में भी पंखे आदि से हवा नहीं करते थे । पृथिवी पर चलते समय वनस्पति तथा पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना न हो जाय इसकी पूरी-पूरी सावधानी रखते हुए विहार करते थे।
ऐसा आचरण सभी जैन तीर्थंकरों का होता है । आज भी तपश्चर्या तथा पांच महाव्रतों के अभ्यास से कर्म क्षय किये जा सकते हैं । यह परम्परा आज भी जैनों में कायम है।
केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महावीर प्रभु विश्व में दुःख संतप्त प्राणियों के उद्धार के लिए सतत सर्वत्र घूमकर कल्याणकारी उपदेश देते रहे और ७२ वर्ष की आयु में उन्होंने पावापुरी (बिहार) में निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।
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