________________
६०
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
३१-स्वर्णभूमि (बरमा) में जैनधर्म
ईसा से एक शताब्दी पूर्व जैनाचार्य कालिक तथा उनके शिष्य-प्रशिष्यों के बरमा में विहार के प्रमाण भी जैन साहित्य में मिलते हैं। ३२-मिस्र में जैन धर्म
थीवर (स्थविर) शब्द का प्रयोग जैन श्रमण के अर्थ में किया गया है । इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि ईसा पूर्व शताब्दिों में मिस्र में जैन श्रमण-तपस्वियों को थेरापूते कहा जाता था। थेरापूते का अर्थ है-मौनी, अपरिग्रही। यथार्थ में थेर या थेरा अथवा थविर शब्द मूल स्थविर शब्द से निष्पन्न हुअा है। स्थविर शब्द का अर्थ है निग्रंथ मुनि । स्थविर शब्द का प्रयोग जैनागमों में भगवान महावीर के पंचमगणधर श्री सुधर्मास्वामी के गण के साधुओं के लिए प्रयोग किया मिलता है। सुधर्मास्वामी के गण (गच्छ) का नाम निग्रंथ गच्छ था जो इन के आठव पाट तक चालू रहा। पश्चात् यही निग्रंथ गच्छ कोटिक गण आदि अनेक नामों से प्रसिद्धि पाता गया । वि० सं० १३६ में निग्रंथसंघ से एकांत नग्नत्व के आग्रह को लेकर सहस्र मल-शिवभूति ने यापनीय पंथ की स्थापना की, पर प्राचीन जैनागम मान्य रखे । तथा महावीर का संघ जो उनके निवार्ण के बाद सुधर्मास्वामी के नेतृत्व से चला आ रहा था, श्वेतांबर (निग्रंथ) संघ के नाम से प्रसिद्धि पाया। इन्हीं साधुनों का एक नाम स्थविर भी है । कन्नड़ भाषा में थेर का अर्थ है तत्वज्ञानी । इसके अन्य अर्थ भी है रथ, ऊंचा । जैनागमों कल्पसूत्र आदि में स्थविर के लिये तथा जिन प्रतिमाओं के लेखों में भी थेर शब्द का प्रयोग मिलता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी स्थविर शब्द के लिये थेर का प्रयोग किया है । उनके--गुरु- पायरिय-उवझायाणं पब्वतित्थेर क्लयराणं णमंसामि ।। (निषिद्धिकादण्डकम्)। पव्वतित्थेरकुलयराणं-का अर्थ है कि प्रवर्तित स्थविर कुलकराणां । दक्षिण भारत में यापनीय पंथ से अलग होकर कुंदकंद ने एक नये दिगम्बर पंथ की स्थापना की । जिन साधुनों ने उसको सहयोग दिया उनको संगठित करके अपने संघ को मूलसंघ के नाम से स्थापित किया। इसने स्त्री मुक्ति, केवली भुक्ति प्रादि अनेक बातों का निषेध किया।
३३. प्रास्टरिया के बुद्धापेस्ट ग्राम के एक किसान के खेत में भूगर्भ से महावीर को प्रतिमा निकली थी जो वहाँ के म्युजियम में रखी है।
३४. विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में हो गये श्वेतांबर जैनाचार्य श्री जिनप्रभ सूरि ने अपने विविध तीर्थकल्प नामक ग्रंथ में चौरासी जैन महातीर्थों के नामों में लिखा है कि
क्रौंचद्वीपे सिंहलद्वीपे हंसद्वीपे श्री सुमतिनाथदेव पादुकाः।। अर्थात् क्रौंचद्वीप में, ३५–सिंहलद्वीप में, ३६-हंसद्वीप में पाँचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ के चरणबिम्ब स्थापित हैं । (क्रौंचद्वीप-समरकन्द बुखारा नगर का नाम था)
३७--मंगोलिया के भूगर्भ से अनेक जैन स्मारक निकले हैं। एक भारतीय पुरातत्त्ववेत्ता ने पाश्चात्य देशों की यात्रा की थी। उसने अपनी आंखों देखा हाल बम्बई समाचार गुजराती पन ता० ४-८-१९३४ के अंक में मुद्रित करवाया था कि-"अाज मंगोलिया में कई खंडित जैन-मूर्तियां और जैन-मन्दिरों के तोरण भूगर्भ से निकले हैं।"
____३८-अमरीका के भूभाग से एक तांबे का बड़ा सिद्धचक्र का गट्टा मिला है। ऋषभदेव का 1. विविध तीर्थकल्प सिंधी ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित प०८६ ।। 2. यहां जिन स्थानों का वर्णन किया है इनके अतिरिक्त अन्य देशों में भी जैन स्मारक पाए गए हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org