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________________ जैन धर्म की सर्वव्यापकता ६१ जन्म अयोध्या में हुआ, अयोध्या ही आपकी राजधानी थी और अयोध्या में ही अपने सन्यास (दीक्षा) ग्रहण किया। आपके साथ ४००० पुरुषों ने भी दीक्षा ग्रहण की। एक हजार वर्ष तक तप किया, पश्चात् पुरिमताल नगर में आपने केवलज्ञान प्राप्त किया । तब अर्हत् [ तीर्थंकर ] बने । मुनि दीक्षा लेने से पहले आपने सौ पुत्रों को अपने विश्वव्यापी राज्य की सुव्यवस्था के लिए बांट दिया और उन्हें प्रदत्त अपने-अपने देशों के राज्य संचालन की घोषणा की। आपके प्रथम पुत्र भरत विश्व के प्रथम चक्रवर्ती राजा हुए। आपने [ ऋषभदेव ने] अर्हत होने के बाद चतुविध संघ [ साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका] की स्थापना की और विश्व में आर्हत् [ जैन ] धर्म का प्रचार प्रारम्भ किया । तब आपके शिष्यों-प्रशिष्यों ने पाद विहार कर सारे विश्व के कोने-कोने में आर्हत् धर्म का प्रचार व प्रसार किया । श्रतः उस समय जैनधर्म ही विश्व धर्म था । गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं नें अर्हत् ऋषभदेव की प्रतिमाओं का निर्माण करवा कर जिनमन्दिरों की स्थापनाएं कीं ताकि अपने उपास्य ऋषभदेव की उपासना भक्ति करके उनके बतलाये हुए मार्ग का चिन्तन-मनन करके ग्रात्मकल्याण की परम्परा की प्रक्षुण्णता कायम रहे । भक्त श्रावकों ने पर्वतों में गुफाओं का निर्माण करवा कर उनमें अर्हत् ऋषभ की प्रतिमानों को अंकित किया ताकि उनमें एकांत बैठकर ऋषभ की कायोत्सर्ग अवस्था की प्रतिमात्रों के सामने ध्यानारूढ़ होकर प्रात्मचिन्तन, योगाभ्यास से कर्मों को क्षय करके प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकें । ऋषभ के बाद महावीर तक क्रमश: तेईस तीर्थंकरों ने तथा उनके अनुयायी निर्ग्रन्थ श्रमण श्रमणियों ने यत्र तत्र सर्वत्र पाद विहार करके जैनधर्म का प्रचार व प्रसार किया । तथा उनके श्रावक-श्राविकाओं ने उन तीर्थंकरों की वन्दना, पूजा भक्ति के लिए उनकी प्रतिमाओं का निर्माण करा कर जैन तीर्थों, जैन मन्दिरों, जैन गुफाओं का निर्माण कराया। उनका हम प्रसंगोपात आगे वर्णन करेंगे । पुरातन काल में विश्व के विशाल क्षेत्र में जैनधर्म का प्रभाव इस बात के विश्वसनीय प्रमाण मिलते हैं कि भगवान ऋषभ की पूजा मान्यता का मध्य एशिया, मिस्र और यूनान ( ग्रीस) में प्रचार फिनीशियनों द्वारा हुआ था । वे नग्न योगी के रूप बैल भगवान मानकर पूजे जाते थे । मिश्रियों के पूर्वज आदि भारतवासी ही थे । फिनीशियनों का भी भारत के साथ इतिहास के पूर्वकाल से ही सांस्कृतिक और व्यापारिक संपर्क था। विदेशों में ऋषभ मेडिटरेनियन वासियों द्वारा अनेक नामों से जाने जाते थे, जैसे रेक्षेभ, अपोलो, टेशब, बली तथा बैल भगवान । फिनीशियन लोग ऋषभ की यूनानियों के अपोलो के नाम से पूजा करते थे । रेक्षोभ से तात्पर्य नाभि और मरुदेवी का पुत्र स्वीकार किया गया है । और नाभि चलडियन देवता नाबू तथा मरुदेवी मूरी या मुरू ही स्वीकार किए गये हैं । श्रारमीनिया निवासियों के ऋषभदेव निःसन्देह जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ ही 1 सीरिया का एक नगर राषाफा है । सोवियत प्रारमीनिया में देशावानी नाम का एक नगर था। बेबीलोन का नगर इसबेकजूर; रिषभ नगर शब्द का अपभ्रंश जान पड़ता है । फिनीशियनों के अतिरिक्त केडिया, सुमेरिया और मेसोपोटेमिया का भी सिन्धु नदी के घाटी प्रदेश से सांस्कृतिक और व्यापारिक सम्पर्क था और वहां के लोग ऋषभ का धर्म अपने देशों में ले गये । इस बात के बहुत प्रमाण हैं कि यूनान और भारत में समुद्री सम्पर्क था । युनानी लेखकों के अनुसार जब सिकन्दर भारत से युनान लौटा था, तब तक्षशिला का एक मुनि कोलीनास या कल्याण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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