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________________ जैनधर्म की सर्वव्यापकता ५६ उपवास) के तप के प्रभाव से देव की सहायता से उसने अष्टापद तीथ की यात्रा की। जहां-जहां यात्री यात्रार्थ गया वहाँ-वहाँ का प्रांखों देखा हाल उसने लिखा है । परन्तु जहां वह नहीं जा पाया वहां-वहाँ भी अनेक नगरों, स्थानों में जैन राजा, जैन प्रजा, जैनमंदिर आदि अवश्य होंगे। इससे यह प्रमाणित है कि जैनधर्म का सर्वव्यापक प्रसार था जिसके कई करोड़ों की संख्या में परिवार अनुयायी थे । यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि जैनों का दिगम्बर पंथ मात्र तीर्थंकर की नंगी मूर्ति को मानता है और श्वेतांबर जैनी नग्न अनग्न सब प्रकार की तीर्थंकरों की प्रतिमानों को मानते हैं । इस उपर्युक्त विवरण से यह बात सर्वथा सत्य प्रमाणित हो जाती है कि इस सारे क्षेत्र के जैन मंदिर, श्रावक-श्राविकाएं साधु-साध्वियां (चतुविध) संघ तथा जैन राजा ये सब श्वेतांबर जैन धर्मानुयायी थे । अतः इससे इस बात की पुष्टि भी होती है कि विश्व का जो धर्म पाहत् अथवा निग्रंथ धर्म के नाम से प्रसिद्ध था वह श्वेतांवर जैन धर्म ही है। अनार्य देशों में जैन श्रमण-श्रमणियों का विहार २४--- इतिहास लेखक G. C. Moore का विश्वास है कि हज़रत ईसा मसीह के जन्म से आठवीं शताब्दी पूर्व (भगवान पार्श्वनाथ के समय) ईराक, स्याम, फ़िलिस्तीन में सैकड़ों-हजारों की संख्या में जैन मुनि सर्वत्र जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे । २५–वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में से श्री ऋषभदेव, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर ने अनार्य देशों में भी विहार करके जैनधर्म का प्रसार किया था। इस की पुष्टि में साहित्य और पुरातत्त्व सामग्री से प्रमाण उपलब्ध हैं । __२६-अरब, ईरान, शकस्थान प्रादि अनेक अनार्य देशों में चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रपौत्र सम्राट सम्प्रति मौर्य ने जैनधर्म के प्रचारक तथा श्रमण भेजे थे । २७-ईसा की सातवीं शताब्दी में चीनी बौद्ध यात्री हुएनसांग ने अफगानिस्तान में बहुत जैनमंदिर, जैन-मुनि और जैन-परिवार देखे थे। २८-सियादत नाम का एनासिर लिखता है कि इसलाम धर्म के कलंदरी संप्रदाय पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था । साधुता (फकीरी) शुद्धता (पवित्रता), सत्यता, अपरिग्रहवाद, और अहिंसा पर इस मत के अनुयायी अखंड विश्वास रखते थे। २९-नेपाल में जैनधर्म श्रु तकेवली आचार्य भद्रबाहु, स्थूलिभद्र आदि साधुओं; सेना, वेना, रेना आदि साध्वियों के विहार, भद्रबाहु के महाप्राणायाम की साधना, स्थूलिभद्र के दृष्टिवाद (बारहवें अंग के चौदह पूर्वो) के अभ्यास का वर्णन नेपाल में करने का जैनागमों में मिलता है । ३०-भूटान में जैनधर्म उपर्यक्त विवरण में हम लिख आये हैं कि लामचीदास गोलालारे जाति के जैन ने भूटान से चलकर चीन आदि देशों के जैन तीर्थों की यात्रा की। अतः भूटान में भी जैनधर्म के प्रमाण उपलब्ध हैं। 1. यात्री ने यह यात्रा १८ वर्षों में पूरी की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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