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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म महाविदेह के सागर बने हुए हैं। इन विदेहों में बहुत ही सुन्दर बड़ी छोटी नदियां बन रही हैं। इन मंदिरों में जिन प्रतिमाए जन्म समय की बहुत छोटी-छोटी हैं और मुट्ठियां बांधे हुए हैं । यहां के लोग जन्मावस्था (जन्म कल्याणक) की पूजा करते हैं । यहां मेले भी लगते हैं उन मेलों में भगवान की प्रतिमा को, आभूषण पहने हुए एक मनुष्य इन्द्र का रूप धारण करके मेरू पर्वत पर ले जाता है । उस मेरू पर बहुत से मनुष्य चढ़कर तीर्थंकर प्रभु की प्रतिमा को १००८ कलशों से न्हवन (प्रक्षालस्नान ) कराकर सकल देश मिलकर पूजा करता है। फिर प्रभु की प्रतिमा रथ में विराजमान करके पांच दिनों तक बड़ी धूमधाम से अनेक प्रकार के बाजे- गाजों के साथ पांच कोस तक रथयात्रा करके संघ उत्सव करता है। पश्चात् नगर में वापिस आकर जिनप्रतिमा को मंदिर में विराजमान कर दिया जाता है । मात्र जन्म होने पर ही तीर्थंकर को इन्द्र मेरु पर ले जाकर जन्मोत्सव मनाते हैं ।
१९-इसी देश में सोहना (जाति के) जैनी हैं । ये लोग तीर्य कर की राज्य विभूति को वन्दन व पूजन करते हैं । इनकी प्रतिमानों के सिर पर राज्य मुकुट विराजते हैं । ये राज्य विभूति और जन्म समय के विशेष भेद हैं । (जन्म कल्याणक तथा राज्य विभूति में तीर्थंकर मुकुट आदि अलंकारों से अलंकृत होते हैं इस लिये) दोनों में विरोध नहीं है । उत्सव दोनों के एक ही होते हैं । (कुंडल मुकुट आदि से अलंकृत जिन प्रतिमाएं जीवित स्वामी की प्रतिमाए कहलाती हैं । जो श्वेताम्बर जैनों के अनेक मंदिरों में विद्यमान हैं)।
२०- तिब्बत में ही दक्षिण दिशा में ८० कोस की दूरी पर खिलवन नगर है । यहां अनेक वन और सरोवर हैं । यात्री यहां एक वर्ष रहा । इस नगर के जैनी जैनपंथी हैं । ये लोग (तीर्थंकर के दीक्षा) समय के पूजक हैं । यात्री ने इनके आगम सुनकर श्रावक की ११ प्रतिमाओं को धारण किया। इस नगर में १०४ शिखरबन्ध जैनमंदिर है। ये सब मंदिर रत्न-जड़ित मनोज्ञ हैं। यहाँ के वनों में भी तीस हजार जैन मंदिर हैं इस लिये यहाँ के मंदिर बनस्थली के नाम से प्रसिद्ध हैं । इन में नंदीश्वर द्वीप की नकल के ५२ चैत्यालय भी हैं। यहाँ अट्ठाइयों में बहुत बड़े-बड़े मेले लगते हैं । इन मेलों में बड़ी-बड़ी दूर से यात्री पाते हैं । परन्तु जंगली जानवरों का भय बहुत है । यात्री लिखता है कि मैं अपनी जान को जोखम में डालकर भी यहाँ की यात्रा करने गया । [वर्ष में छह अट्ठाइयाँ (आठ-आठ दिनों के छह पर्व) धर्माराधना के लिये प्राचीन (श्वेतांबर) जैन आगमों में वणित हैं। उनमें एक पर्युषण पर्व की भी अट्ठाई है।]
२१-तिब्बत चीन की सीमा में दक्षिण दिशा की ओर हनुवर देश में दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह कोस पर जैनपंथियों के बहुत जैन नगर पाये। जिन में बहुत जैन मंदिर हैं।
२२-हनुवर देश के उत्तर सिरे पर यात्री एक धर्माव नामक नगर में गया। यह नगर महा अद्भुत स्वर्ग समान है। इस नगर की उत्तर की ओर एक बहुत बड़ा वन है। इस वन में बहुत जैन मंदिर तीन-पंथियों, बीस-पंथियों, तेंतीस-पंथियों, ५३ पंथियों अथवा अनेक जैन पंथियों के हैं । इस हनुवर देश के राजा-प्रजा सब जैनी हैं। इस देश की आबादी कई लाख की है । जैनमंदिरों की वेदियां स्वर्ण की रत्नों से जड़ित हैं। इस प्रदेश में जंगली जानवर बहुत हैं । इसलिये यहाँ के लोग वन जन्तुओं से भयभीत रहते हैं । सुरक्षा के लिये इन सब नगरों के कोट बने हुए है । जान-माल की सुरक्षा के लिये इन कोटों के द्वार एक प्रहर दिन रहते ही बन्द कर दिये जाते हैं।
२३- यात्री लिखता है कि वह वहां से ऋषभदेव की निर्वाण भूमि श्री कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर यात्रा करने के लिये चल पड़ा। मानसरोवर पर पहुंच कर तेले (तीन दिन का
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