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जैनधर्म की सर्वव्यापकता (जैन मुनि) भी मिलते हैं ।
कपिश देश अफगानिस्तान के अन्तर्गत है। इसकी राजधानी कपिशा थी । कपिशा को वर्तमान में बेग्राम भी कहते हैं। यह कम्बोज के दक्षिण दिशा में है। यहां कपिश नामांकित शिलालेख प्राप्त हुए हैं । कम्बोज को पामीर भी कहते है । यह भी उत्तरापथ में पड़ता है। जैनागम उत्तराध्ययन सूत्र की नेमिचन्द्राचार्य कृत वृत्ति ( ११:१६ पत्र १६६/२) तथा राजप्रश्नीय सूत्र (कंडिका १६० पत्र ३०१) में कम्बोज का उल्लेख मिलता है । वैदिक इंडैक्स भाग एक में लिये गए नक्शे में कम्बोज को गांधार के उत्तर में दिखाया गया है । यह पामीर की मध्य ऐशिया स्थित अधित्यका है। कम्बोज के पूर्व तारिम नदी है, उसीके समीप कछार नदी है। ३. पर्शिया और मिस्र में जैनधर्म
प्राचीनकाल में यहां पर भी जैनधर्म का प्रसार था। प्रो० ए० चक्रवर्ती vol vii पृ. १२४, १२५ में लिखते हैं कि
__ In Persia there were two ZOROASTERS. Former lived about 6000 B.C. and other about 500 B. C. Former represented the early Aryans in Central Asia. These proclaimed that it was necessory to propitiate God by sacrificing animals. But the second ZOROASTER proclaimed a bloodless alter and attempted to destroy the teaching of the first, this clearly proves that the second ZOROASTER was already under the influence of the cult of Ahimsa preached by the fallowers Parsava Mitras in persia also was associated with a bloodless alter. (Pro. A. Chakrawarti)
देश का नाम-Mystical group Israch were also influence by the asceties who were called GYMNOSOPHISTS who were preaching in Alexandria in Egypt. Encyclopedia Britanica vol 25. 11th Edn proves GYMNOSOPHISTS used already by Megasthenese applies, very apply to Nirgranthas Travellers (Jain Munies) must have travelled upto Egypt. Preaching Ahimsa, They must have influence these people because they considered abolition from meat eating and drinking wine as important eithical aspect of their religion (Pro. A. chakarwarti vol vii P. P. 124. 125)
The Egyptian philosophy do betroy Jain influence. (Confluence of opp.)
४. काबुल ईरान आदि देशों में भी जैनधर्म का प्रसार था । वर्तमान काल में भी वहां से अनेक बार जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं मिलती रहती हैं । हम आगे चलकर प्रसंगोपात इस पर प्रकाश डालते रहेंगे।
५. लंका में जैनधर्म--यहां पर भी जैनधर्म का सर्वत्र प्रचार व प्रभाव था। आज भी यहां जैनधर्म के अवशेष, स्मारक, तथा तीर्थंकरों की प्रतिमाएं प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। विक्रम की १४ वीं शताब्दी में हो गये जैनाचार्य जिनप्रभ सूरि ने अपने चतुरशिति (८४) महातीर्थ नामक कल्प में यहां श्री शांतिनाथ तीर्थंकर के महातीर्थ का उल्लेख किया है । यथा
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