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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
१६८३ को तारातंबोल की यात्रा से वापिस लौटकर मुलतान (पंजाब) के जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक श्रावक ठोकुर बुलाकीदास ने अपनी यात्रा का संक्षिप्त विवरण किसी मित्र अथवा कुटुम्बियों को लिखा है। वह पत्र राजस्थानी भाषा में लिखा है। जो दिल्ली की रूपनगर कालोनी में स्थित जैन श्वेतांबर श्री शांतिनाथ जी के मन्दिर में विद्यमान हस्तलिखित शास्त्र भंडार में सुरक्षित है ।। "तहां इस्तम्बोल नगर बसे छ, तिहां थी ५०० कोस बब्बरकोट छै, तिहाँ थी ७० कोस तारातंबोल छ। पिच्छिम दिस समिंदर कांठौ नौड़ी छै । तठे जैन पड़ासाद (प्रासाद-मन्दिर). पौषधसाल (उपाश्रय), सुतपद (शास्त्र भंडार) अनेक मंडन मांहें प्रथाव (विस्तार) छ । श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी अनेक मंडन (मकानों) माहें छ। तिहां उदयप्रभ सूरि युगप्रधान जति (प्राचार्य) छ । "तठ सब प्रजा-राजा जैन छ।” (यति श्वेतांबर मूर्तिपूजक परम्परा के साधु का पर्यायवाची शब्द है)।
(२) ई. स. १९२६ (वि. स. १६.८३) में श्रीयुत एन. सी. महता ने "स्टडीज इन इण्डियन पैटिंग" नाम की पुस्तक प्रकाशित की थी, उसमें उसने एक जर्मन पुस्तक के आधार पर लिखा है कि चीनी तुर्किस्तान में जो अनेक स्थानों में प्राचीन चित्र मिलते हैं उनमें जैनधर्म से सम्बन्ध रखने वाली घटनाएं भी चित्रित हैं । (बबियान बैली) २. अफ़ग़ानिस्तान में जैनधर्म-अफ़ग़ानिस्तान की सीमाएं---
उत्तर में रूस राज्य, पश्चिम में जुलपुकर, पूर्व में लेक विक्टोरिया और यही इसका उत्तरी सीमांत है। पूर्वसीमांत प्रदेश चित्राल से लगा हुआ है और दक्षिण में बिलोचिस्तान है । अफ़ग़ानिस्तान में कई पर्वत हैं, जिनमें हिन्दूकुश, कोहबाबा और सफेदकोह प्रधान हैं । आक्खस, हेलमन्द और काबल नदियां अफगानिस्तान से होकर बहती हैं।
अफगानिस्तान में भी जैन मन्दिर तथा जैनधर्म को मानने वाले थे। इस बात की पुष्टि के लिए हम ऐतिहासिक प्रमाण भी देते हैं। प्राचीनकाल में अफगानिस्तान गांधार देश में ही सम्मिलित था। इसका प्राचीन नाम आश्वकायन भी उपलब्ध है। वहां सिर पर तीन छत्रों सहित ऋषभदेव की खडी मूर्ति जो १७५ फुट ऊंची थी और उसके साथ २३ अन्य तीर्थंकरों की छोटी प्रतिमाएं पहाड को तराश कर बनाई गई थीं। इन मन्दिरों में आसपास के तथा दूर-दूर के लोग यहां यात्रा करने आते थे।
(३) बौद्ध चीनी यात्री हुएनसांग ने ईस्वी सन् ६८६ से ७१२ तक भारत में म्रमण किया था। वह अपनी यात्रा विवरण में लिखता है कि-"कपिश देश में १०० संघाराम हैं। उनमें ६००० बौद्ध भिक्ष निवास करते हैं। जो प्रायः महायान सम्प्रदाय के शास्त्रों का अभ्यास करते हैं। यहां दस के करीब देबमन्दिर और एक हजार के करीब अन्य मतावलम्बियों के मन्दिर भी है। यहां निर्ग्रन्थ
1. हस्तलिखित प्रति नं० A. ५४/१४ पृष्ठ १४२ 2. C. J. Shah Jainism in Northern India London, 1932 p. 194 3. Buddhist record of western world translated from the Chines of Hiuen
Tsiang by Samual Beal. 2 Vols London 1884 Vol I.P.55. 4 हएनसांग ने अपने यात्रा विवरण में सब जगह जैनमंदिरों का उल्लेख देवमंदिरों के नाम से किया है। इस
बात की पुष्टि उसके "सिंहपुर के जैनमंदिर" के उल्लेख से होती है।
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